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आत्मानुशासन.
रहनेसे । इसी प्रकार जहां जहांपर राग-द्वेषकी कमी व ज्ञानकी वृद्धि दीख पडती है वहां वहांपर सुख-शांति व अनुद्वेग देखनेमें आता है । वस्तुमें उद्वेग व अशांति न रहना यही उस वस्तुका मूल स्वभाव समझना चाहिये। क्षोभ व अशांति अथवा उथलापथल होना विजातीयसंयोगका कार्य है । इसीलिये क्षोभरहित शांत होकर ठहरना वस्तुका मूल स्वभाव समझा जाता है | रागद्वेषरहित शुद्ध ज्ञान उत्पन्न होनेपर मात्मामें क्षोभ-अशांती मिटती है और शांति प्राप्त होती है । रागद्वेषकी अवस्था जैसी जैसी मंद होकर तत्त्वज्ञानकी वृद्धि होती है वैसी ही वैसी जीवोंको शांति प्राप्त होती हुई जान पडती है। इसलिये रागद्वेषका पूर्ण अभाव होकर ज्ञानकी पूर्णता होनेको निज स्वभाव व पूर्ण सुख-शांती प्राप्त होनेका कारण मानलेना अनुभवके विरुद्ध न होगा।
वस, वस्तुके स्वभावकी प्राप्ति होना ही अविनाशी अवस्थाका प्राप्त होना है । वह अवस्था कभी फिर छूटती नहीं है । इसलिये जो अपने अविनाशी पदकी आकांक्षा करते हों उन्हे चाहिये कि, ज्ञानकी आराधना करें। क्योंकि, ज्ञान जीवका मूल स्वभाव है। किसी भी वस्तुको चिरकालतक भावना या आराधना करनेसे उसकी प्राप्ति एक दिन अवश्य होती है ।
ज्ञान-भावनाका फल:ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥१७५॥
अर्थः-ज्ञानकी आराधना करनेका या ज्ञानमें मम होनेका असली व उपयोगी फल यही है कि परोक्ष व अल्प श्रुतज्ञान हटकर सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञानका लाभ हो । यह फल अविनश्वर है व आत्माको पवित्र तथा सुखी बनानेका कारण होनेसे स्तुत्य है । तपश्चरण करना, धर्माचरण करना, ज्ञानाभ्यासादि करना; यह सव इसलिये कि अणिमा महिमा-आदि ऋद्धि, सिद्धि व संपत्ति आदिकी प्राप्ति हो; ऐसा मानना मोहका माहात्म्य है। जिन जीवोंको मोह शांत होकर आत्म
ज्ञान-भाव