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हिंदी -भाव सहित ( आत्मतत्त्वका स्वरूप ) । १७९
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जब कि वस्तुस्वरूप दिखानेवाले इन चारो पक्षोंमें दोष जान पडते हैं तो वस्तुस्वरूप निर्दोष कैसा होगा ? इस प्रश्नका उत्तर श्लोकके उत्तर आधे भाग में दिया है । वह यों कि, तत्त्वों का स्वरूप प्रतिक्षण परिणामी व सदा स्थिर है । अथवा नित्यानित्य, एकानेक भिन्न अभिन्न व सत् असत् ऐसा वस्तुओंका स्वरूप है । और यह स्वरूप किसी एक ही तत्त्वका नहीं है किंतु सभी तत्त्वोंका स्वरूप ऐसा ही है । यह स्वरूप सदा ही बना रहता है; न कि कभी नित्य कभी अनित्य । इसका समर्थन पहिले किया जाचुका है कि जो पदार्थ जैसा दीख पडता हो व जैसा कहने में आवै वही व वैसा ही उसका स्वरूप मानना चाहिये । वस्तुएं नित्यानित्य ही दीखने में आती हैं व सामान्य- विशेष अपेक्षा वैसी ही कहनेमें आती हैं इसलिये नित्यानित्य आदि स्वरूप ही ठीक जान पड़ता है। आत्माका परिचय कैसे हो ?
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ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ॥ १७४॥ अर्थः – उत्पत्ति, स्थिति, नाश इन तीनो धर्मोंका सतत रहना तो हुआ वस्तुओंका सामान्य लक्षण | इन्ही सर्व वस्तुओंके अंतर्गत जीव भी एक द्रव्य या तत्त्व है । उसका भी सामान्य स्वभाव तो वही है कि जो वाकी सर्व वस्तुओं का है । परंतु जीव जीवोंका निजी तत्त्व है व उसीके कल्याण के लिये सारा घटाटोप है - शास्त्रोंका उपदेश व व्रत, तप, दान, धर्म, ये सर्व कर्म केवल जीवके ही कल्याणार्थ कहे व किये जाते हैं । इसलिये जीवकी निराली पहिचान होना बहुत ही आवश्यक कार्य है । उसके कल्याणके मार्ग उसके जाननेपर ही जाने सकते हैं । तब ? जीवका स्वभाव ज्ञान है। जीवोंको जितने दुःख, अशांति, उद्वेग, क्षोभ, होते दीखते हैं वह सव रागद्वेष के वश होनेसे, व अज्ञान १ श्रेयो मार्गप्रतिपित्सा आत्मद्रव्यप्रसिद्धेः, इति श्रीअकलंकदेवाः ।
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