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आत्मानुशासन. पडता । कुछ न कुछ चंचलता सभीमें होती दीखती है। इसलिये वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है।
(२) चंचलता या उथलापथल केसा भी हो परंतु किसी भी वस्तुकी श्रृंखला टूटती नहीं दीखती है । परिवर्तन होकर भी वस्तुओंका कोईन कोई रूप सदा बना ही रहता है। जैसे अंकुरकी उत्पत्ति निराधार न होकर बीजमेंसे ही होती है। यदि वस्तुमात्र एक दूसरेसे संबंध न रखकर नवीन नवीन ही उत्पन्न हो व पहली अवस्थाओंके नाश भी सर्वथा होते जाय तो विना बीजके भी उत्पत्ति होनी चाहिये थी । पर नहीं होती । इसीलिये तत्त्व केवल क्षणविनाशी भी नहीं है।
(३) बाहिरी पदार्थों का सद्भाव तो अनेक युक्तियोंसे जाननेमें आसकता है व अनुभवके भी अनुकूल है। यदि ज्ञानमात्र ही वास्तविक तत्त्व होता तो उसमें अनेक रूपान्तर होना संभव नहीं था। कारणके विना कार्यका उत्पन्न होना जिस प्रकार असंभव है उसी प्रकार कारणोंमें भेद न रहते हुए कार्योंमें विचित्रता होना भी असंभव है । वेदान्तका वचन है कि वस्तुओंका सर्वथा अभाव मानना उचित नहीं है। क्योंकि, वस्तुएं देखनेमें आती हैं । वस, जिस प्रकार सद्भाव दीखनेसे उनका अभाव माना नहीं जासकता, उसी प्रकार जैसा दीखता हो और जहांपर दीखता हो वह वैसा और वहींपर मानना तथा अवश्य मानना उचित जान पडता है । वस्तुएं जड व बाहिरकी तरफ पड़ी हुई मी जान पडती हैं इसलिये ज्ञानके अतिरिक्त बाह्य पदार्थोंका मानना भी न्याययुक्त है।
(४) जब कि, बाहिरी वस्तुओंका मानना भी न्याययुक्त है तो सर्वथा वस्तुमात्रका अभाव मानना तो सहजमें असय जान पडेगा । यदि वस्तुमात्रका अभाव हो तो बोलने व कहनेवालेका भी अभाव रहेगा। और इसीलिये इस अभाव तत्त्वका स्थापित करना भी कठिन होजाता है ।
१ " नाभाव उपलब्ध: " वेदान्तसूत्र दूसरा अध्याय ।