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आत्मानुशासन.
शुद्ध बनानेकेलिये स्वयं समर्थ नहीं हो सकते हैं। और ऐसे ही साधु प्राय वहुत होते हैं । इसलिये गुरुओंके आश्रय सिवा उन साधुओंको कभी स्वतंत्र रहना न चाहिये।
साधुओंका असली स्वरूपःगेहं गुहा परिदधासि दिशो विहायः, संयानमिष्टमशनं तपसोभिवृद्धिः। प्राप्तागमार्थ तव सन्ति गुणाः कलत्र,मप्राथ्येत्तिरसि यासि वृथैव याच्याम् ॥१५१॥
अर्थः--ग्रन्थकर्ता साधुओंको कहते हैं कि तुम पूरे स्वतंत्र हो । तुझें किसी भी चीजकी ऐसी जरूरत नहीं है कि विना कहींसे संग्रह किये, तुलारा काम न चलै । देखोः
तुह्मारा घरका काम गुफाओंसे चलता है; तुझे घर बांधनेकी आवश्यकता नहीं है । तुम दिगंबर बन गये इसलिये आजू बाजूकी दिशाओंके सिवा पहरनेकेलिये अन्य वस्त्रों के संग्रह करनेकी गरज नहीं रही। आकाश ही तुमारेलिये वाहन है । उसीमें बसकर चाहें जहां विचरो । तपकी अत्यंत वृद्धि करनेसे तुह्मारा मनोवांछित भोजन पूरा होसकता है । इष्ट भोजन करनेसे भूख नष्ट होती है । वह भूख तुझे केवल तपकी है । तपको खूब बढाओ यही तुमारा कर्तव्य है; नाक भोजनकी चिंतामें समय बिताना। चारित्रादि अनेक गुण जो तुझें प्राप्त हुए हैं उन्हींमें तुझें स्त्रीसे भी अधिक रत होना चाहिये । जिन्हें गुण प्राप्त नहीं होपाते वे अपना मन स्त्रियोंमें रमाते हैं। पर जिन्हें उत्तमोत्तम सच्चे कल्याणकारी भेद-ज्ञानादि गुण प्राप्त होचुके हैं उनका मन जैसा उन गुणों में आसक्त होसकता है वैसा कहीं नहीं होसकता । इसलिये उनको स्त्रीसे भी अधिक मनोरंजक, गुण समझने चाहिये ।
. अब त यदि विचारकर देखै तो तेरेलिये एक भी ऐसी चीजकी जरूरत नहीं कि जिसके विना तेरे कण्याण साधनेकी प्रवृत्ति रुक