________________
१७४
आत्मानुशासन.
खूव ही लहलहा रहे हैं । अनेक सत्य नयमा!का वर्णन भरा हुआ है जिससे कि मिथ्या कल्पना व मिथ्या सिद्धान्तों का खंडन होता है तथा सत्य सिद्धान्तोंका मंडन होता है। ये नय ही इस वृक्षकी सैकड़ों शाखाएं हैं। विश्वस्वरूपका निरूपक होनेसे यह वृक्ष अत्यंत उन्नत होरहा है । सत्य व विशद मतिज्ञानद्वारा इसकी उत्पत्ति होती है इसलिये यह मतिज्ञान ही इस श्रुतस्कन्धकी जड है । ऐसे इस शास्त्र - वृक्षपर बुद्धिमान् हितेच्छु जनों को यह मन-वंदर सदा ही रमाना चाहिये ।
ऐसा किया तो विषयोंमें उसको प्रवेश होनेका समय ही नहीं मिलेगा। उस समय पापकर्मोंसे आत्माकी रक्षा करलेना कोई बड़ी कठिन बात नहीं है । यह ठीक बात है कि जो शास्त्रका तत्त्वचिंतवन करनेमें मनको रोकता है वही आत्माका पूर्ण कल्याण सिद्ध करसकता है। शुक्लध्यानमें भी शास्त्रका चितवन किया जाता है जिससे कि केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार देखनेसे मालूम होगा कि साधुओंकी कोई एक भी ऐसी क्रिया नहीं है कि जिसमें तत्त्व व शास्त्रका चितवन छूट जाता हो अथवा अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग न रह सकता हो । जो साधु अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगको क्षणकेलिये भी छोडता है वही तत्काल मुनिपदसे भ्रष्ठ हो जाता है । इसीलिये साधुओं को शास्त्राभ्यासमें रमानेका यह उपदेश दिया गया है।
श्रुतज्ञानमें मन लगाकर चितवन क्या करे ? तदेव तदतद्रूपं प्रामुवन विरंस्यति । इति विश्वमनाद्यन्तं चिन्तयेद्विश्ववित् सदा ॥ १७१ ॥
अर्थः- प्रत्येक पदार्थ किसी एक इष्ट स्वरूपकी मुख्य भावनावश उस स्वरूपको धारण करता है, तो भी केवल वैसा ही नहीं है । तब? और और स्वरूपोंकी अपेक्षा और और प्रकारका भी है । जैसे कि एक कोई पदार्थ उसकी विशेष अवस्थाओंकी तरफ लक्ष्य देनेसे प्रतिक्षण विनश्वर स्वभाववाला दीख पडता है। परंतु वही सामान्य दृष्टिसे