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आत्मानुशासन. इह विनिहितबहारम्भबाह्योरुशत्रो,रुपचितनिजशक्ते परः कोप्यपायः । अशनशयनयानस्थानदत्तावधानः, कुरु तवं परिरक्षामान्तर्रान् हन्तुकामः ॥१६९॥
अर्थः-अरे भाई, तेने मुनिपद धारते ही बाहिरी शत्रुओंका तो उच्छेद कर ही दिया है। पापकर्मोंको संचित करानेवाले विषय व परिग्रहोंका आरंभ करना मुनिपद धारते ही छूट जाता है। ये आरंभ ही बाहिरी शत्रु हैं। इनके रहनेसे जीवोंके अंतर-परिणाम शुद्ध नहीं रहपाते । इसीलिये ये बाहिरी उपाधि हैं । तू इनका अभाव तो कर ही चुका है। जब कि बाहिरी विघ्नोंका नाश होचुका हो तो फिर अंतरशत्रुओंका नाश करनेके लिये अपनी आत्मशक्तिको और भी बढाना चाहिये । पर उसे भी तू प्राप्त कर चुका है । संयमके अनेक प्रकारोंको साधनेसे आत्मबल बढता है । वह संयमानुष्ठान तेने बहुत दिनोंसे सुरू कर रक्खा है । इसलिये तुझै अंतर-शत्रुओंका नाश करनेमें अब कोई दूसरे विघ्न तो बचे दीखते नहीं हैं; कि जो संसारी क्षुद्र प्राणियोंको आड आते हैं । हाँ, भोजन करना, चलना, बैठना, सोना-ये थोडेसे व छोटेसे आत्मकल्याण साधनेमें विघ्नरूप शेष रहे हुए हैं। क्योंकि, मुनिपद होजानेपर भी भोजन-शयनादि कुछ प्रमादवर्धक क्रिया बाकी रह जाती हैं, जो कि शीघ्र छूट नहीं पाती । यों तो उन्हें भी छोडनेका प्रयत्न तुझै करना ही चाहिये । पर, जबतक वे क्रियाएं निश्शेष छूट नहीं पाती तबतक भी उनसे सावधान होकर तो रह । क्योंकि, तुझै अंतर-शत्रुओंक नाश करना अवश्य है । यदि इन भोजनादिक कार्यों में तू मोहित हुआ तो कालान्तरमें धीरे धीरे महापाप तक करनेको तत्पर हो जायगा ।
१ 'निजपरिरक्षा- ' ऐसा भी पाठ होसकता है। २ मुनियोंके अंतरंग शत्रु रागद्वेषादि कषाय । कषायों को बढानेकेलिये निमित्त जो बाहिरी परिकर, वह बाह्य शत्रु समझना चाहिये ।