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हिंदी-भाव सहित ( तपमें स्थिर करनेका उपदेश )। १७१ सन्त्येव कौतुकशतानि जगत्सु किंतु, विस्मापकं तदलमेतदिह द्वयं नः। पीवाऽमृतं यदि वमन्ति विसृष्टपुण्याः, संप्राप्य संयमनिधिं यदि च त्यजन्ति ॥१६८॥
अर्थः- जगमें आश्चर्यकारी बहुतसी बातें हैं व सदा होती रहती हैं। परंतु हम उन्हें देखकर भी आश्चर्य नहीं मानते; और असली आश्चर्य उनमें है ही नहीं । वस्तुओंका जो परिवर्तन कारण पाकर होनेवाला है वह होगा ही। उसमें आश्चर्य किस बातका ? हाँ, ये दो बातें हमको आश्चर्ययुक्त जान पडती हैं। कोनसी ? एक तो यह र्कि, अतिदुर्लभ अमृतको पीकर उसे उगलदेना, दूसरी यह कि, संयमकी निधि पाकर उसे छोडदेना । जो ऐसा करते हैं वे भाग्यहीन समझने चाहिये ।
भावार्थ:-जो अति मूर्ख होगा वही अमृत पीनेको मिलनेपर भी, तथा उसे पीलेनेपर भी फिर उगलेगा । लोग यह समझते हैं कि अमृत पीलेनेसे फिर मृत्यु पास नहीं आता। जब मरण नहीं तो बुढापा एक आधासा मरण ही है; वह भी क्यों आवेगा ? वस, अमृत पीनेवाला मनुष्य सदा आनंदमें मन्न रहसकता है। उसे कभी किसी प्रकारकी
आपत्ति, क्लेश सहने नहीं पडते । जब कि अमृतकी यह बात है तो संयम तो सर्वथा ही कर्मादि दुःखकारणोंका निर्मूल नाश करनेवाला है । इसलिये संयम-निधिको पाकर जो छोडना चाहता है वह तो बहुत ही बडा मूर्ख है। उसकी इस अज्ञानपूर्ण कृतिपर जितना आश्चर्य हो उतना ही थोडा है । उसके बरावर जगमें भाग्यहीन और कौन होगा ? इस अचिरजसे और कौनसा अचिरज बडा होगा ? सबसे बडा यही अचिरज व यही अनोखी बात है । तब क्या करना चाहिये ? तप व संयम ये ही असली नित्य सुखके साधन हैं इसलिये तप व संयमको कभी छोडना नहीं चाहिये । देखोः