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आत्मानुशासन. पर कोटिं समारूढौ द्वावेव स्तुतिनिन्दयोः ।
यस्त्यजेत्तपसे चक्रं यस्तपो विषयाशया ॥ १६४ ॥ __ अर्थः-दो ही मनुष्य स्तुति व निन्दाकी सीमाको पहुचते हैं। जो तप करके आत्मकल्याणके साधनेकी इच्छासे राज्य भोगादि बडीसे बडी विषयसुखसामग्रीको छोडता है वह तो कीर्ति व स्तुतिकी सीमाको पालेता है; और जो धारण किये हुए तपको भी विषयोंकी सुखमूलक आशासे छोडता है वह निन्दा व अकीर्तिकी सीमाको प्राप्त होता है। ठीक ही है, उसके समान और कौन मूर्ख होगा जो कि आत्मकल्याणके सच्चे मार्गमें प्रवेश करके भी उससे पराङ्मुख होगया हो । जिन्हें विवेक-नेत्र प्राप्त नहीं हुए वे विषयोंमें फसकर यदि दुःखी होते हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं है । पर दीपकको हाथमें पकडकर भी जो खड्डेमें पड जाय उसका आश्चर्य है । उसीकी लोग अति निन्दा करते हैं। और जो तपश्चरण करके आत्माको परम पवित्र बनाते हैं उनकी स्तुति तो देवोंके स्वामी इंद्र भी करते हैं; मनुष्य स्तुति करें, इसमें तो आश्चर्य ही क्या है ?
त्यजतु तपसे चक्रं चक्री यतस्तपसः फलं, सुखमनुपमं स्वोत्थं नित्यं ततो न तदद्भुतम् । इदमिह महच्चित्रं यत्तद्विषं विषयात्मकं,
पुनरपि सुधीस्त्यक्तं भोक्तुं जहाति महत्तपः ॥ १६५ ॥ __ अर्थः- कोई चक्रवर्ती होकर भी यदि अपने प्राप्त हुए चक्र तथा और भी संपूर्ण ऐश्वर्यको तप करनेकी इच्छासे छोडदे तो कुछ अनौखी बात नहीं है । क्योंकि, जो चक्रवर्ती बन जानेपर भी सुख नहीं मिलसके हों वे सुख तप धारण करनेसे मिलते हैं। तपका फल यह है कि जिसकेलिये जगमें कोई उपमा नहीं, जो शाश्वत व स्वाधीन, वह सुख प्राप्त होता है । चक्रवर्तीका सुख कितना ही बडा हो परंतु वह अनेकवार पहिलेका अनुभव किया हुआ होता है, पराधीन व अं.