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हिंदी -भाव सहित ( संतोषकी प्रशंसा ) |
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मोहका उदय कुछ नहीं करसकता है। मोहका उदय होते हुए भी वे साधु भोजनादिके वश नहीं होसकते हैं । इसलिये जब कि मोहका तीव्र वेग आया दीखता हो तब साधुको आत्मचितवन करके समय विताना चाहिये ।
जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विधिर्विधिः । किं करोति विधिस्तेषां येषामाशानिराशता ॥ १६३॥ अर्थः- दैवसे डर उन्हींको होसकता हैं कि जिन्हें जीनेकी आशा व धन दौलतकी आशा लगी हुई है । आयुके अधीन जीवन है और वेदनीय मोहनीयादि कर्मोंके अधीन विषयजनित सुख-दुःख हैं । इसीलिये जिन्हें इनकी चाह है उन्हीं के ऊपर दैव अपना सामर्थ्य प्रगट करसकता है । परंतु जिन्होंने विषयजंजाल से छुटकारा पाने की ही आशा लगा रक्खी है उनका दैव क्या करसकता है ? दैव यदि कुपित हुआ तो क्या करेगा ? यही न, कि उनके शरीरका नाश करदे व धन दौलत, स्त्रीपुत्रादिकोंसे वियोग करादे | पर इसकी आशा तो वे पहले से ही लगाये बैठे हैं ।
भावार्थ:- जो जगसे उदास होकर बैठे हैं उनको दैव दुःखी नहीं करसकता है । एक तो वे हानि-लाभ, मरना, जीना, इन सभी को बराबर देखते हैं, इससे आत्माको शांत बना चुके हैं। दूसरें, वे कुछ दिन वाद कर्मों से पूरे ही मुक्त हो जायंगे । ऐसे साधुओंका दैव क्या करसकता है ? हाँ, जो घर-द्वार छोडकर भी जब अपना निर्वाह याचना विना होना असंभव समझकर याचना करने लगते हैं तव उन्हें दैव चाहे जैसा दुःखी कर सकता है । क्योंकि, जिन्हें वे चाहते हैं वे चीजें दैवाधीन हैं । चाहे तो दैव उनका संयोग होने दे और चांहे तो न भी होने दे । इसीलिये याचनासे सुख मिलना कठिन है और याचना करना छोड देनेपर तो निर्द्वन्द्वता प्राप्त होजानेपर सुख ही सुख है । असलमें बात तो यह है कि विषयोंकी आशामात्र ही दुःखदायक है । देखो:
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