________________
आत्मानुशासन.
भोगोंकी खान जो स्वर्ग, वही तेरेलिये तयार है । पर उसको प्राप्त होनेकी योग्यता जो मिलरही हैं उसे क्यो उतावला होकर बिगाडता है ? थोडी ही देर बाद उस सुखकी अवस्था तयार होकर मिलनेवाली है । मुनिपद, मानो उस सुखको तयार करनेका साधन । अरे तपस्वी, इस अधकच्ची हालतको देखकर भी यदि इसे स्वस्थ होकर सहेगा नहीं; किंतु इस अवस्थामें मिलनेवाले भोजनादिमें प्रवृत्त होगा तो जैसे भोजन न पकने देकर उसके कच्चे पानी आदिको पीडालनेसे आगे पककर मिलनेवाला भोजनका आनंद नष्ट हो जाता है वैसे तुझे अपूर्व मिलनेवाला आगामी स्वर्ग-सुख नष्ट हो जायगा ।
विषयोंमें इच्छा न होनेपर भी जब कि मोह-कर्मका उदय प्राप्त होता है तब भोजनादिमें परवश प्रवृत्ति हो ही जाती है । वह कैसे रुक सकती है ? इसका उत्तरः
निर्धत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानकचक्षुषाम् ॥१६२॥
अर्थः-दैव कुपित हो तो किसीको दरिद्री बनादे, आंखें फोडदे, या बहुत करै तो इस शरीरसे जुदा करदे । पर जो साधु धनादिकोंका छूट जाना ही चाहते हैं व शरीरादिसे छुटकारा मिल जानेमें ही अपना कल्याण समझते हैं और जिनके अंतरंग ज्ञानचक्षु प्रकाशमान होचुके हैं उनका वह दैव क्या करसकता है ? दैव यदि दुःख दे तो इतना ही देसकता है पर उस दुःखकी जिन्हें परवाह ही नहीं है उनका दैव क्या करसकता है ? दैव बहुत करै तो बाहिरी संयोग अनिष्ट प्राप्त करदे । पर जो बाहिरी वस्तुओंके पराधीन ही नहीं हैं उन्हें दैव क्या कष्ट देसकता है ?
भावार्थ:-जिनको आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका है उन साधुओंको
१ तत्काल उत्पन्न हुई विषयतृष्णा हटानेकेलिये यह लालच है परंतु वास्तवमें तो भोगोंकी आकांक्षा सर्वथा छूट जानेसे ही कल्याण होसकता है।