________________
हिंदी-भाव सहित (आशा छूटनेका उपाय) १५९ जानेपर भी तीव्र लोभी मनुष्यकी आशाकी पूर्ति नहीं होती है । चाहे जितना धन संपत्ति लोभीको मिल जाय पर उसकी तृष्णा बढती ही जाती है । इसीलिये यह आशारूप खड्डा अथाह है। तब फिर चाहे जितनी याचना या कमाई की जाय पर, आशा रखते हुए संतोष नहीं मिल सकता है । इसीलिये यह धन किस कामका है कि जिससे संतोष ही नहीं हो पाता । हाँ, मान-धनसे अर्थात् याचना छोडकर याचनासे होने वाली तुच्छताको हटाकर, गौरवकी रक्षा करनेसे संतोष अवश्य प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार देखनेसे मालूम होगा कि मनस्वितासे आशारूप खड्डा भर जाता है । इसलिये जो निधियोंसे भी नहीं भरा गया वह आशारूप खड्डा जिस मानरक्षारूप धनने बराबर भर दिया वह मानधन ही असली धन है । इसलिये अपने मान गौरवकी रक्षा करना सभीका कर्तव्य है।
आशाखनिग्गाधेयमधःकृतजगत्त्रया। उत्सर्योत्सर्ग्य तत्रस्थानहो सद्भिः समीकृता ॥१५७॥
अर्थः- जिस आशारूप खड्डको निधियों से भी किसीने भर नहीं पाया, जिसके सामने तीनो लोक भी थोडे दीखते हैं-तीनो लोक भी जिसके एक कोनेमें समा सकते हैं। इतना वह आशागत गहरा व विस्तीर्ण है । इसकी पूर्ति बडे बडे चक्रवर्ती सरीखोंसे नहीं हुई । यदि की तो, निर्धन साधुओंने की। यह आश्चर्यकी बात है। उन्होंने विचार किया कि यह आशागत किन चीजोंसे उत्पन्न होता है ? तो मालूम हुआ कि धन दौलत वगैरह विषय-सामग्री इसको उत्पन्न करती है । वस, साधुओंने एक एक सामग्रीको उठा उठा कर फेंक दिया । अब आशा-गर्त कहांसे रह सकता है ? वस, आशागर्त सहजमें ही बराबर होगया।
अहों, यदि कोई मनुष्य जलती हुई आगको बुझाना तो चाहें और ला-लाकर उसमें ईंधन डालता जाय; तो क्या वह आग कभी भी थंडी पडेगी : नहीं । उसके बुझानेका एकमात्र यही उपाय है.कि जो