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हिंदी-भाव सहित ( याचककी निन्दा )। १५७ तो भी दान देते समय दाता तो अति महान दीखने लगता है और याचना करनेवाला अति तुच्छ दीख पडता है। इसका कारण शायद यह हो कि उस समय याचकका गौरव या महत्त्व दाताकी तरफ पलट कर पहुच जाता है । यदि ऐसा न होता तो याचकका इतना तुच्छ बनना व दाताका इतना गौरव बढना असंभव था। इसमें दूसरा कोई कारण ही नहीं दीखता है । दोनो समानजातीय मनुष्य होकर भी याचनामात्र याचकका गौरव कम करनेवाली है । जितनी इधर लघुता प्राप्त होती है उतना ही उधर दाताका गौरव बढता है ।
इन दोनोंकी अवस्थाका दृष्टान्तःअधो जिघृक्षवो यान्ति यान्त्यूर्ध्वमजिघृक्षवः । इति स्पष्टं वदन्तौ वा नामोनामौ तुलान्तयोः ॥१५४॥
अर्थ:-तराजूके जिस पलडेमें कुछ चीज रखदी जाती है वह नीचा होजाता है और जो खाली रहता है वह ऊंचा होजाता है । इससे यह मतलव समझना चाहिये कि याचनापूर्वक लेनेवालेकी भी यही दशा होती है। जो याचना करके लेता है वह अधोगति-नरकका पाप संग्रह करके नीचे चला जाता है । और जो भोगके विषयोंसे उदास रहता है, कभी किसीसे कुछ याचना नहीं करता है वह पापोंके बोझेसे हलका रहता है । और इसीलिये वह स्वर्ग या मोक्षकेलिये मरकर ऊर्ध्व गमन करता है।
यद्यपि याचना करना सभीकेलिये बुरा है पर, साधुओंकेलिये तो याचना करनेकी सर्वथा ही मनाई है। वे किसीसे याचना नहीं करते। यदि उनकी आवश्यकतानुसार कोई अन्न औषध तथा पुस्तकादि उन्हें देंद तो बे लेते हैं, नहीं तो नहीं । यदि किसी भक्तका उनकी तरफ महीनों भी लक्ष्य न जाय तो भी वे दुःखी नहीं होते; याचना करनेको तयार नहीं होते । उनकी धीरता बडेसे बडा कष्ट आजानेपर भी ढलती नहीं है। वे अपनेको इतना अधिक स्वतंत्र बना लेते हैं तभी तो उनकी मुक्ति इस संसारसे शीघ्र होसकती है।