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आत्मानुशासन.
१६२ वह पूरा छूट नहीं पाता तबतक उन्हें इस बातकी लज्जा वनी रहती है कि हमारी स्वतंत्रता होनेमें इतनी कमी है ! अब कहिये, ऐसा महात्मा थोडी और भी कनक वसनादि आरामकी चीजें अपने पास रख सकता है ऐसा मानना कितना अनुचित है ? वह आहारके सिवा और चीजों को, जिनसे कि धर्माचरणमें कोई सहायता नहीं मिलती, केवल कायरतावश कैसे रखसकता है ? परिग्रह एक पिशाचके समान जीवोंको उन्मत्त व अज्ञानी बनानेवाला है। इसलिये वह जितना छूट सकता हो उतना ही अच्छा है।
साधु या मुनि, यति, तपस्वी, भिक्षु, इत्यादि नाम छठे गुणस्थानवी मनुष्यके हैं । क्रमसे जैसा जैसा राग-द्वेष कम होता जाता है वैसे ही ये गुणस्थान ऊपर ऊपरके माने जाते हैं। पहले गुणस्थानमें आत्मज्ञान न होनेसे विषयोंके साथ जो अत्यंत रागान्धता रहती है जिसे कि ' अनंतानुबन्धी' ऐसा कहते हैं; वह छूटते ही आत्मज्ञान व साथ साथ विषयरागोंकी शिथिलता हो जाती है । वस, इसीको चौथा गुणस्थान कहते हैं। इसमें आजानेपर भी विषयोंसे पराङ्मुखता ऐसी नहीं होपाती कि जिसे कोई दूसरा समझ सके। पर तो भी विषयों में जो गाढ अन्धता पहिले रहती थी वह अब नहीं रहती व आत्माका कुछ साक्षात्कार भी होने लगता है । यह मुक्त होनेके क्रमका प्रथम दर्जा है। मुक्त होनेकेलिये सुरुआत यहींसे पडती है । इसे अवृत सम्यग्दृष्टी कहते हैं।
जब जीवकी निवृत्ति कुछ और भी अधिक बढती है तब गुणस्थान पांचवा होजाता है । इसमें सुरूसे ही वे चीजें छूटने लगती हैं कि जिनको छोडकर भी मनुष्य दुनियाके सहवासमें रह सकता हो । जैसे, अन्यायकी प्रवृत्ति, स्त्री, व्यापार-धंदा, हाथसे भोजनादि करना, फिर अपने पुत्रादिकोंको व्यापारादिकी संमति देना व अपने घरका निवास, भोजनकेलिये पूछनेपर किसीको आज्ञा देना, व साथ