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हिंदी-भाव सहित (भ्रष्ट साधुओंकी दुर्दशा)। १५३ जाते हैं-चित्त ठिकानेपर नहीं रहता। स्त्रियोंका वक्रावलोकन बाणसे भी अधिक जाकर हृदयमें चुभने लगता है । कामी मनुष्य शरीरमें शर प्रवेश कर जानेपर पीडित हुए हरिणकी तरह उस वेदनाके मारे इधरसे उधर फिरते हैं। शर प्रवेश कर जानेपर हरिण जैसे जंगलभर भटकता है पर उसे कहीं भी शांति प्राप्त नहीं होपाती; इसी प्रकार ये कामपीडित भ्रष्ट साधु विषयाटवीमें चारों तरफ भटकते हैं पर कहीं भी शांति प्राप्त नहीं कर सकते । जब कामकी तीव्र वेदना हृदयमें प्रगट होती है तब किसी मनोहरसे मनोहर भोगमें भी चित जमता नहीं है। वायुके वेगसे इधर उधर उडनेवाले मेघोंकी तरह कामवेदनासे दुःखी हुए वे साधु कहीं भी स्थिर नहीं होते । व्रत-संयमादिकोंसे तो चलायमान होते ही हैं परंतु फिर भी स्थिरता प्राप्त नहीं होती है । सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अव्रती रहकर अति आनंदित व शांत सुखी रहता है; पर कामपीडित साधु अव्रती गृहस्थोंसे भी अति हीन दशामें प्राप्त हो जाते हैं। बहिरात्मा मिथ्यादृष्टियोंकी तरह अज्ञानी व विषयाधीन तथा अशांत बन जाते हैं । यह सब होकर भी वे जबतक साधुवेशको छोडते नहीं तबतक लाज या अपमानके भयसे अपनी गिनती साधुओंमें ही कराते हैं, अपनेको साधु कहाकर प्रसन्न होते हैं ।
ऐसे भ्रष्ट साधुओंका ऊपरी साधुवेश देखकर बहुतसे भोले भव्य जंगली कबूतरों की तरह उनमें जाकर मिल जाते हैं और धीरे धीरे उन्हींकेसे बन जाते हैं । इसलिये अरे भाई, तुझे समलकर रहना चाहिये । तू उनमें जाकर कहीं मिल न जाना । नहीं तो रहा सहा सब चला जायगा । तू जबतक अति प्रबुद्ध नहीं होता तबतक यथेष्ट अपनी प्रवृत्ति मत कर । ऐसी अवस्थामें तुझै गुरुओंकी चरणरज छोडकर स्वच्छन्द कहीं कभी न भटकना चाहिये । गुरुओंकी सेवा भक्ति व आज्ञा पालनेसे ही तेरा कल्याण होगा। तू स्वयं अपनेको सँभाल नहीं सकता है । सभी साधारण स्थितिके साधु अपनी चर्या