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हिंदी-भाव सहित (कल्याणके साधनोंकी कमी) १५१ वगैरहके इकडे करलेने न करलेनेसे कोई बुद्धिमान् व मूर्ख नहीं होसकता और न इसको हिताहित सिद्ध करलिया ही मानना उचित है। ये बातें सभी जगमें एकसमान हैं। एक ही मनुष्य कभी धनी कभी निर्धन बना हुआ देखनेमें आता है । इसलिये इतनी उन्नतिके होने न होनेसे संतोष व दुःख भी न मानना चाहिये । तब ?
सुगतिका साधन करना और उसके अनुकूल साधनोंका संग्रह करते हुए बाधक कारणोंको हटाना यह बुद्धिमानी है । और ऐसा जिससे नहीं बन सकता है उसे मूर्ख कहना चाहिये । यही असली हित है। इससे जीव शाश्वत सुखी बनता है । संसारके क्षणिक सुख व उनके साधनोंका संग्रह करलेनेसे कोन बुद्धिमान् , बुद्धिमान् कहेगा ?
___ कलियुगमें धर्मकी रक्षा होना कठिन है । देखोःकलौ दण्डो नीतिः स च नृपतिभिस्ते नृपतयो, नयन्त्यर्थार्थ तं न च धनमऽदोस्त्याश्रमवताम् । नतानामाचार्या न हि नतरताः साधुचरिता,स्तपस्थेषु श्रीमन्मणय इव जाताः प्रविरलाः ॥१४९॥
अर्थः-इस कलियुगमें नीतिमार्गकी प्रवृत्ति केवल दंडके अधीन होरही है । दंडके सिवा, दूसरे कोई भी उपाय मनुष्यको नीतिमार्गपर रखनेकेलिये समर्थ नहीं हैं । दंड देकर सुपथपर लाना यह राजाओंका काम है । और राजाओंका यह हाल है कि जहांसे धन दौलत मिलती दीखती है वहां वे अपना ध्यान लगाते हैं। साधु विचारे निर्धन । उन्होंने धन पहिलेसे ही छोड दिया है । तब ? उन्हें न्याय मार्गपर चलानेकी चिन्ता राजाओंको क्यों हो? वे समझते हैं कि साधुओंको न्यायमार्गपर चलानेका कष्ट उठानेपर भी हमें मिलनेवाला क्या है ? कुछ नहीं।
इस प्रकार राजाओंसे तो साधुओंका सुधार होना कठिन है । अब यदि साधुओंके सुधारका दूसरा कोई मार्ग है तो एक उनके गुरु ।