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हिंदी-भाव सहित (हिताहितका विचार )। १४९ इमे दोषास्तेषां प्रभवनममीभ्यो नियमितो, गुणाश्चैते तेषामपि भवनमेतेभ्य इति यः। त्यजस्त्याज्यान हेतून् झटिति हितहेतून् प्रतिभजन , स विद्वान् सद्वृत्तः स हि स हि निधिः सौख्ययशसोः॥१४७॥
अर्थ:--रागादि व विषयभोगाकांक्षा, स्त्रीपुत्रादिकोंके साथ अटूट प्रेम, ये सब दोष हैं; क्योंकि, इनके होते मनुष्य निराकुल नित्य सुखी नहीं होसकता है । जो अनिष्टजनक या अहितसाधक होता है वही दोष समझा जाता है । स्त्रीपुत्रादिके साथ प्रेम व विषयभोगाकांक्षादिक, ये सत्र आकुलता, अज्ञान, बुद्धिविपासादि उत्पन्न करते हैं जिससे कि जीवोंको थोडासा भी चेन नहीं मिलसकता है। इसीलिये ये दोष हैं । इन दोषोंको उपजानेवाले अशुभ-खोटे कर्म रहते हैं। उन्ही कर्मोंके तीव्र उदयसे जीवोंमें रागान्धता उत्पन्न होती है। . अब देखिये गुणोंकी तरफ । आत्मज्ञानादि व एकाकी रहकर आत्मीय सुखानुभव करना, विषयोंसे मन उदास होना या वीतराग चेष्टा उत्पन्न होना, ये सब गुण हैं । जिससे आत्मा साक्षात् व परंपरया असली सुखी शांत होसकता है उसीको गुण कहाजाता है। आत्मज्ञानादिके प्रगट होते ही जंजाल, जो कि दुःख व आकुलता बढानेवाले हैं उनसे आत्मा उपरत होता है और इसीलिये काल पाकर नित्यानंदका भोक्ता बन जाता है । इसलिये आत्मज्ञानादिको गुण माना जाता है । इन गुणों की उत्पत्ति मिथ्या दुःखदायक कुकर्मोके उपशांत व क्षीण होनेपर होती है। ___ इस प्रकार जिस मनुष्यको इन दोष-गुणोंकी व दोष-गुणोंके कारणोंकी कार्यकारण श्रृंखला निश्चित हो चुकी है उसे छोडने लायक दोष व दोषके हेतु छोडने चाहिये और स्वीकार करने लायक गुण व गुणोंके कारण स्वीकार करने चाहिये । जब कि मनुष्य इस बातको समझ चुका हो तो इनके त्याग व स्वीकारमें कुछ भी विलम्ब न करना