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आत्मानुशासन.
भावार्थ:-किसी भी कार्यके करते समय फक्त गुणदोष देखने चाहिये । जिससे गुणवृद्धि व कल्याण होता दीखै वह कार्य करना चाहिये और जिससे गुणहानि व अकल्याण होता दीखै वह कार्य कदाचिद् भी न करना चाहिये । वस, इतना समझकर, निन्दास्तुतिकी कुछ भी परवाह न करके जो चलता है वही श्रेष्ठ ज्ञानी मनुष्य है । उसीके हाथसे आत्मकल्याण होसकता है ।
हितं हित्त्वाऽहिते स्थित्वा दुर्धीवुःखायसे भृशं, ... विपर्यये तयोरोध त्वं सुखायिष्यसे सुधीः ॥ १४६ ॥
अर्थः- आजतक तेरेमें इसी बातकी कमी रही। अभीतक तू जितने काम करता है उनमें यह तो देखता ही नहीं है कि इससे मेरा कल्याण होगा अथवा अकल्याण,-इसके करनेसे मेरी सुगति होगी अथवा दुर्गति ? फक्त, निन्दा व स्तुति होते देखकर सारे काम तू करता है। इससे होता क्या है ? ऐसा चलनेसे तू आत्मकल्याण व गुणोंकी वृद्धि नहीं कर सकता है और न दोषोंको छोड ही सकता है । तब ? तेरे हाथसे हित तो कुछ हो नहीं पाता किंतु अहितमें प्रवृत्ति होती है। यह सब तेरे अज्ञानकी चेष्टा है । इसीसे तू उलटा चल रहा है और इसीलिये आजतक अति दुःखी होरहा है। अब तू इस निन्दा-स्तुतिके झगडेको छोडकर हिताहितकी परीक्षा कर। निन्दा-स्तुतिको देखकर चलनेसे न तो दोष ही छूट पाते हैं और न गुणोंकी वृद्धि ही हो पाती है । केवल पक्षपातमें फसकर दोषोंका संचय किया जाता है। इसलिये इस अहितकारी विचार व प्रवृत्तिको छोडदेना चाहिये । यह छोडकर यदि अपने हितकी तरफ देखना सुरू किया तो सुख प्राप्त होगा, धीरे धारे दोष हटकर गुण बढेंगे, और एक दिन असली आत्मकल्याण पूरा प्राप्त होजायगा । वह हित यदि देखना हो तो यही है कि स्वार्थी लोगोंकी स्तुतिपर लक्ष्य न देकर सत्पुरुषोंद्वारा दिखाये हुए दोषोंको छोबनेका प्रयत्न किया जाय ।