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आत्मानुशासन.
द्रविणपवनप्राध्मातानां सुखं किमिहेक्षते, किमपि किमयं कामव्याधः खलीकुरुते खलः । चरणमपि किं स्पृष्टुं शक्ताः पराभवपाशवो, वदत तपसोप्यन्यन्मान्यं समीहितसाधनम् ॥११३॥
अर्थः-अहो भव्य जीवों, तुम समझते होगे कि धन दौलत तथा विषयसेवन सुखके कारण हैं । तप धारण करनेवालेको ये छोडने पडते हैं । इसीलिये तप कोई अच्छी चीज नहीं है । तप करना अर्थात् अपने आप न आये हुए दुःखोंके वीच आकर फसना है-न पैदा हुए दुःखोंको पैदा करना है न आनेवाले दुःखोंको आग्रह करके बुलाना है । तपकी तरफ न झुककर यदि विषयसेवन किया जाय तो बडा ही आनंद आता है । धन दौलतसे विषयोंका सुगमताके साथ संग्रह होसकता है इसलिये धन दौलत भी इकट्ठा करना बहुत जरूरी है।
पर यह तो कहो कि आंधी पवनके जोरदार झकोरे लगनेपर जब जीव इधर उधर डगमगने लगता है तब क्या उसे थोडा भी आनंद प्रतीत होता है या क्लेश ? उस अवस्थामें आनंद कैसा ? अपने सँभालनेकी उलटी पंचायत पडती है, मन स्थिर नहीं रहता । उस समय यह विचार होने लगता है कि मैं कहीं गिर न जाऊं, इसमें कैसे संभलना होगा ? इत्यादि। ऐसी तरहकी जब मनमें चिन्ता लग गई तो सुख कैसा ? वहां तो अपनेको सँभालते सँभालते वेजार होना पडता है । वस, यही हालत धन-दौलत की है । जो इसके चक्कर में पड़ जाता है वह अपनेको सँभालते सँभालते वेजार होता है । वहां क्या थोडासा भी सुख किसीको दीख पडता है ? नहीं । तो फिर धन-दौलतमें आनंद क्या रहा ? रहा विषयसेवन, पर यह भी एक व्याधके समान अत्यंत दुष्ट है । व्याध जिस प्रकार पक्षियोंको अपने जालमें फसालेता है और उन्हें परतंत्र बांधकर रखता है; कभी कभी मार भी डालता है। इसी प्रकार विषय भी जीवोंको फसाते हैं और फिर अपने चंगुलमें आये हुए उन जीवोंको कभी निकलने नहीं देते,