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हिंदी-भाव सहित (ज्ञानचारित्रका वृद्धिक्रम )।
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भावार्थः-प्रारंभमें साधुओंका चारित्र व ज्ञान अधिक प्रकाशमान नहीं होसकता है; क्योंकि, उनकी वह अवस्था प्रारंभकी है। उस समय उनका ज्ञान कैसा ही अधिक हो परंतु श्रुतज्ञान ही रहेगा; जो कि परोक्ष है । यदि बहुत हुआ तो अवधि व मनःपर्ययतक होसकता है। परंतु वह एक-दम प्रथम ही प्राय नहीं होता और वह भी सर्वदेशीय सर्व विषयोंका प्रकाशक नहीं है । इस प्रकार प्रथम अवस्थामें ज्ञान पूर्ण नहीं होसकता है । चारित्र भी प्रथम समयमें सामायिक व छेदोपस्थापन ही होसकता है, अधिक नहीं। यह चारित्र सवसे ऊपरके यथाख्यात चारित्रसे बहुत ही हीन है; क्योंकि, कषायोंकी मात्रा इन चारित्रों के समयमें पूरी मंद अथवा नष्ट नहीं हो पाती है । यथाख्यात चारित्र प्रगट होते समय ये ही कषाय पूरे शांत तथा नष्ट तक हो जाते हैं । इस लिये यह चारित्र भी साधारण ही समझना चाहिये । इसीलिये इस चारित्र व ज्ञान गुणको दीपकके.प्रताप-प्रकाशके तुल्य कहा है। एवं जो इन गुणोंको धारण करनेवाला साधु है उसे दीपकके तुल्य कहा है।।
यद्यपि दीपकमें प्रताप व प्रकाश, ये दोनो गुण प्रगट रहते हैं तो भी जैसा प्रकाश-गुण प्रधानतासे दीख पडता है व काममें आता है वैसा प्रताप नहीं । इसी प्रकार साधुके ज्ञान-चारित्र भी चाहे दीपकके तुल्य ही प्रारंभमें थोडेसे क्यों न हों पर तो भी प्रधान ज्ञान-गुण ही रहना चाहिये । यदि इस प्रकार कोई साधु ज्ञान-गुणको मुख्य रखकर तपस्वी बनै तो कालान्तरमें केवलज्ञान व यथाख्यात सर्वोत्तम चारित्रको प्रगट करके सूर्यके समान पूर्ण प्रकाशित होसकता है। यह ज्ञानकी महिमा है। दीपसमान होनेका और भी हेतु सुनिये:
भूत्वा दीपोपमो धीमान् ज्ञानचारित्रभास्वरः । स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्वमन् कर्मकजलम् ॥१२॥
अर्थ:-ज्ञानकी आराधना अथवा उपासना करनेवाला बुद्धिमान् साधु दीपकके तुल्य थोडेसे ज्ञान-चारित्रको धारण करके प्रकाशित होता