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हिंदी-भाव सहित (काम जीवोंका शिकारी है)। १३१ तो शिकारी होने ही चाहिये । ये सेवक अत्यंत दुष्ट, क्रूर, पापी, भयानक, क्रोधके आवेशमें भरे रहते हैं । इनका काम है कि शिकारको घेर घेर कर अपने स्वामीके पास लावें । शिकारको पकडनेकी जगह स्त्रीको बना रक्खा है । कपटसे इस स्त्रीकी आकृति ऐसी बनाई है कि देखनेसे वह सुख प्राप्त होनेकी जगह भासने लगती है । इस शिकारीकेलिये जगके सारे ही जीव हरिण या शिकार हैं । जब शिकार यों हात नहीं आती तब शिकारके छिपनेके बिडोंके आस पास शिकारी लोग आग लगा देते हैं । तब विचारी शिकार डरकर घबराकर निकल भागती है। वस, वे शिकारी घेरकर पकडनेकी जगहमें रेटकर लेआते हैं जहांसे कि फिर वचना असंभव होता है । ये इन्द्रिय शिकारी भी जगवासी जनोंके चौगिर्द आगके समान विषयसंबंधी रागभाव उद्दीप्त करनेकी चेष्टा करते हैं । जब जीव भनेक प्रकारके विषयोंको देख देखकर रागके वश दुःखी हो जाते हैं तो स्त्रीके शरीरको विश्रामका स्थान समझकर वहां आफसते हैं । वस, वह तो उनके बध होनेका ही स्थान है । वहां आये कि काम-व्याध अपने संमोहनादि तीक्ष्ण बाणोंसे ऐसा उन्हें जर्जरित करता है कि वे अपने चेतनाको ठिकाने नहीं रख सकते । ऐसी अवस्थामें वे विचारे जीव शुद्ध चैतन्य प्राणोंको खोकर नरकादि कुगतियोंमें जन्म लेते हैं; जहांसे दुःखका पार पाना अति कठिन है । भावार्थ, जीवोंको कुगतियोंमें पहुचाकर दुःख देनेका कारण स्त्री है । इसलिये आत्मकल्याणकी इच्छा करनेवालोंको इनसे बचना चाहिये। इनमें फसना हो तो कल्याणकी आशा छोड देनी चाहिये।
तपस्वी होकर विचलित होनेबालोंको समझाते हैं:अपत्रप तपोनिना भयजुगुप्सयोरास्पदं, शरीरमिदमर्धदग्धशववन्न किं पश्यसि । वृथा व्रजसि कि रतिं ननु न भीषयस्यातुरो,
निसर्गतरलाः स्त्रियस्तदिह ताः स्फुटं बिभ्यति ॥ १३१ ॥ १काकुवचनमिदम् । प्रयोजकप्रयोगोपि वाक्यसौन्दर्यवशात्प्रयोज्ये आनीय व्याख्यात इति न दोषाय।