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आत्मानुशासन. . अर्थः- अरे निर्लज, तू तपस्वी बनचुका है। एक तो तुझे अपने पदकी तरफ लक्ष्य देना चाहिये । दूसरें, यदि तेने चांहा भी तो भी स्त्रियां तुझै कब पसंद करेंगी ? तू अपने शरीरकी तरफ तो देख । तप करते करते तेरा शरीर अग्निसे झुलसकर आधे जले हुए मुर्देकी तरह दीखने लगा है। देखते ही भय उत्पन्न होता है । भय उत्पन्न कदाचित् किसीको न हो तो भी देखते ही ग्लानि हुए विना तो रहेगी नहीं । ऐसे शरीरको देखकर स्त्रियां क्या डरेंगी नहीं ? अवश्य डर जायंगी। स्त्रियां सहज ही भयभीत होती हैं । इसलिये तेरा शरीर देखकर वे अवश्य डरेंगी । तब ! फल क्या होगा ? तू उनके साथ प्रेम करने जायगा और वे तुझे देखना भी पसंद नहीं करेंगी । या तो तेरा अपमान करके तुझै हटा देंगी; नहीं तो वे कहीं छिप जायंगी । इससे होगा क्या ? तेरा मतलब तो सधेगा नहीं, उलटा अपमान सहना पडेगा । जब कि यह बात है तो व्यर्थ उनके साथ प्रेम उत्पन्न कर तू क्यों लजित बनना चाहता हैं ? क्यों अपने आत्मकल्याणको भी हाथसे खोता है ? इतने उत्कृष्ट पदको क्यों निष्कारण बट्टा लगाता है ? होना जाना तो कुछ है ही नहीं।
३ श्लोकोंमें स्त्रियों के अंतरंग दोषःउत्तुङ्गसंगतकुचाचलदुर्गदूर,मारादलित्रयसरिद्विषमावतारम् । रोमावलीकुसृतमार्गमनङ्गमूढाः, कान्ताकटीविवरमेत्य ने केत्र खिन्नाः ॥ १३२ ॥
अर्थः- स्त्रियोंके अति उन्नत कठोर जो कुच हैं वे मानो पर्वतोपरके किले हैं । अरे भाई, कामी पुरुषोंको स्त्रियोंका योनिस्थान ही
१ तपस्वी होकर जो फिर स्त्री मोहित होने लगा हो उसके लिये यह उपदेश है। संभव है कि जिनकेलिये यह ग्रंथ उद्देश करके बनाया है वे महात्मा ही शायद स्त्रियोंमें या अपनी स्त्रीमें पुन: प्रेम प्रगट करने लगे हों। नहीं तो ठीक साधुको संबोधकर कहनेकी ऐसी जरूरत कम थी।
२ अत्रापि काकु । तेन 'सर्वेप्यत्र स्थाने आगत्य खिन्ना भवन्त्येव' इत्यर्थो ग्राह्यः । 'केर्थखिन्नाः' इत्यपि पाठस्ति । तत्र अथै : प्राणैः खिन्नाः के न भवन्तीत्यर्थोवसीयते ।