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हिंदी-भाव सहित (तपस्वीके विषयरागकी निन्दा)। १४३ यह राज्य भी आत्मकल्याणके कर्ताओंको हेय समझना चाहिये । यदि विषयभागोंके सुखार्थ राज्यसंपदा भी प्राप्त हुई हो तो भी उसे छोडकर बुद्धिमानोंको तप ही करना चाहिये । तप आगामी सुखोंका कारण है, राज्य वैसा नहीं है । एवं तपसे साक्षात् भी जो सुख शांति प्राप्त होती है वह राज्यसे नहीं होसकती है । राज्यके तंत्रसे उपरत व दुःखी होनेवालोंको भी तपमें शांति प्राप्त होती है ।
तप पाकर छोडनेवालेकी दशा दृष्टान्तद्वारा दिखाते हैं:पुरा शिरसि धार्यन्ते पुष्पाणि विबुधैरपि। पश्चात् पादोपि नास्माक्षीत् किं न कुर्याद्गुणक्षतिः ॥१३९॥
अर्थः-जब पुष्पोंमें सुगंध रहता है तब बडे बडे प्रतिष्ठित लोग भी उसे गलेका हार बनाकर धारण करते हैं और देवोंके मस्तक तक भी पहुचाते हैं । वे ही पुष्प जब कि गंधरहित मुरझा जाते हैं तब उ. तार कर उन्हें फेकना पडता है । उस समय यदि डोलने फिरनेकी जग. हमें भी वे पुष्प पडे रहजाय तो बुरे लगते हैं; पैरोंसे स्पर्शना भी उनका अनुचित जान पडता है । यह सब गुणकी ही महिमा है । गुण न रहनेपर कौन किसको पूछता है ? इसी प्रकार तपस्वी बननेपर जिनकी दे. वता भी आकर पूजा करते हैं, पैरोंमें पडते हैं; वे ही यदि तपसे भ्रष्ट हो जाय तो सभी लोग उन्हें अति निंद्य समझने लगते हैं । इससे तो व्रत न धारण कर पहिली ही अवस्थ में रहते तो अच्छा था । तपोभ्रष्टको छोटेसे छोटा पामर मनुष्य भी निकृष्ट समझने लगता है । देखोः
हे चन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं, तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एव नाभूः । किं ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या, स्वर्भानुवन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः ॥ १४० ॥
अर्थः-अरे चंद्र, तू थोडासा कलंक क्यों धारण कर रहा है ? तुझमें जो चांदनी है वह जगका प्रकाश करती है और तुझै भी प्रका