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हिंदी-भाव सहित ( तप दुःखका कारण नहीं है)। ११९
लोगोंकी शंका यह होती है कि तपश्चरणमें दुःख है। इसलिये तप करना कठिन है और विषयके सुखोंको छोडकर दुःखमें जानबूझकर फसना मूर्खता भी है। ऐसा प्रश्न जिसको उठता हो उसकेलिये ग्रंथकर्ताने भगवान् आदीश्वरका दृष्टान्त दिखाकर यह बताया है कि कर्मका उदय दुःखका कारण है । तप कुछ दुःखका कारण नहीं है । जब कर्मका उदय विपरीत होता है उस समय तीर्थकर सरीखे जन भी दुःख भोगनेसे वच नहीं सकते हैं । उस कर्मका संबंध संसारदशामें सर्वदा ही विद्यमान है । इसलिये जब कि कर्मका विपरीत उदय आता है तब घर वैठे हुए तथा अनेक सुखसाधन रहते हुए भी जीवको दुःख भोगने पडते हैं । तप यह कर्मके नाशका उपाय है । क्योंकि, तपमें आत्मस्वभावके सन्मुख होनेसे विपरीतता तथा अज्ञान-प्रवृत्ति घटती है । और इसलिये पूर्वबद्ध कर्मका क्रमसे नाश तथा नवीन कर्मबंधनका निरोध होने लगता है । अंतमें सर्व कर्मसे मुक्ति प्राप्त करके जीव नित्य ज्ञानानंदमें प्रवेश करता है । ऐसे परिपाक समयमें सुखजनक तपको दुःखका कारण समझना भूल है । जब कि दुःख घर बैठे जीवको भी छोडता नहीं है तो तप करते भी किसीको कदाचित् कुछ कर्म, उदयमें आकर दुःख दें तो
वह तपका लांछन नहीं समझना चाहिये; और अपना प्रयोजन साधनेकेलिये शांति तथा धैर्यके साथ उन्हें सहलेना चाहिये; पर तपसे भ्रष्ट नहीं होना चाहिये ।
इस प्रकार यहांतक तीन आराधनाओंका स्वरूप कहा । पहली आराधना सम्यग्दर्शन आराधना, दूसरी चारित्र आराधना, तीसरी तप आराधना । इन तीनोंका स्वरूप सुननेपर भी तबतक इनसे कुछ प्रयो जन सिद्ध नहीं होसकता जबतक कि श्रुतज्ञानादिक तत्त्वज्ञान आत्मामें प्रगट नहीं हुए हों । क्योंकि, तत्त्वज्ञान होनेपर ही सर्व उपदेश फलीभूत होते हैं । इसलियै अब ज्ञानकी महिमा व ज्ञानकी आराधना यहांसे कहना सुरू करते हैं।