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आत्मानुशासन.
भावार्थः-संसारमें जबतक रहना है तबतक दैव पीछे लगा ही हुआ है । उसकी गतिको कोई भी रोक नहीं सकता है। इंद्र जिनका सेवक ऐसे तीर्थंकरको ही जिसने छोडा नहीं उससे दूसरे तो वच ही क्या सकते हैं ? इसलिये जबतक संसारमें रहना है तबतक सुख दुःखका कुल दारमदार दैवके अधीन है- पराधीन है । इसकी सत्ता रहते हुए दुःख तो दुःख है ही, पर सुख भी दुःख ही है। क्योंकि, देवाधीन सुखके आगे पीछे चिंता, इच्छा, आकुलता इत्यादि दुःख लगे ही रहते हैं । सुखके साथमें भी अनेक तरहके दूसरे दुःख रहते हैं । सिवा इसके, संसारदशामें पूर्ण ज्ञान कभी भी प्रकाशमान न रहनेसे उस अज्ञानवश जो एक प्रकारकी धुंधीसी बनी रहती है वह सव आनंद किरकिरा करती रहती है । इस प्रकार यदि विचार किया जाय तो संसारमें रहकर कभी किसीको सुख नहीं मिल सकता है । इसीलिये भगवान् आदीश्वरने कर्मों का निर्मूल नाश कर अविचलित आनंद दायक मोक्षपदकी प्राप्तिका सराहनीय उद्योग प्रारंभ किया । उसी कार्यकी सिद्धिकेलिये जब शरीररक्षाकी जरूरत पड़ी तो इष्ट कार्यमें बाधा न करके भोजनकी तलासमें इधर उधर भटके । विघ्न कर्मका तीव्र उदय होनेसे भोजन जब न मिला तो भी अपने आरंभे हुए कार्यसे पराङ्मुख न हुए और उस दुःखकी कुछ परवाह भी नहीं की । इस प्रकार जब कि वे भगवान् अपने कार्यके साधनेमें आसक्त हुए तो अंतमें उस शाश्वत स्वाधीन सुखको पा ही लिया।
___ इसी प्रकार जो कर्मजनित पराधीन सुखसे विमुख होकर आत्मसुखकी प्राप्तिमें लगते हैं वे उस परम अविनश्वर मोक्षसुखको पासकते हैं । पर ऐसा दृढसंकल्प हो किसका सकता है ? उसीका कि जो कर्मकी अवस्थासे अपने शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूपको निराला समझचुका हो, और फिर कर्म निर्मूल भस्म करदनेकेलिये तपश्चरण करनेको कटिबद्ध हो चुका हो ।