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आत्मानुशासन.
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हन्युः स्त्रीभुजगाः पुरेह च मुहुः क्रुद्धाः प्रसन्नास्तथा, योगीन्द्रानपि ताभिरौषधविषा दृष्टाश्च दृष्ट्वापि च ॥ १२७॥ अर्थ :- सर्प कभी क्रुद्ध हो तो कदाचित् प्राण लेता है और वह भी मनुष्यको काटसकै तो । यदि काटने का मौका न मिलै तो क्रुद्ध होनेपर भी कुछ कर नहीं सकता है। और फिर भी उसका विष दूर करनेकी ऐसी औषधियां मिलती हैं कि जिनसे तत्काल विष दूर होजाय । और सर्प कभी एकाध बार किसीको काटते होंगे । हरएक मनुष्यको सर्प काटते नहीं फिरते हैं । परंतु स्त्री, यह ऐसा सर्प है कि इसने जीवोंको अनादि कालसे आजतक सदा डसा है और अब यहां भी डसती हैं । क्रुद्ध होनेपर भी डसती हैं; प्रसन्न रहनेपर भी डसती हैं । बडे बडे योगीश्वरों को भी डसती हैं । इनके काटने से कोई भी जगवासी बचा नहीं है। इन्हें जो देखले उसे भी इनका विष चढता है और ये जिसे देखलें उसे भी विष चढजाता है । और इनका विष इतना उग्र है कि उसके दूर करनेवाली जगमें कोई औषध ही नहीं है । पर तो भी मनुष्य जितने सर्पोंसे डरते हैं उतने स्त्रियोंसे नहीं डरते, यह उनकी भूल है । स्त्रियोंके देखनेमात्र उनका विष चढता है इसलिये ये स्त्रियां ही सबसे अधिक भयंकर सर्प हैं कि जिनकी काम - विषबाधा शरीर में, मनमें भिंदनेपर कोई उपायतक चलता नहीं है ।
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इसके सिवा सर्पोंसे यह एक बात स्त्रियों में और भी अधिक है कि वे क्रोध आनेपर तो अनेक तरह मारनेका प्रयत्न करती ही हैं किंतु प्रसन्न रहनेपर भी मनुष्योंको मार ही डालती हैं । क्रुद्ध हों तो विष देकर, दूसरे किसी मनुष्यसे झगडा कराकर अथवा अन्य किसी उपाय मनुष्यको मारडालती हैं । क्रोधमें आकर इनका मारना तो वैसा ही समझना चाहिये जैसा कि हर कोई एक दूसरेको द्वेषसे मारता है । परंतु प्रसन्न होकर भी ये मारती हैं यह आश्चर्य है । प्रसन्न होनेपर मनुष्य इनके मोहमें फसता है, इनके वशीभूत होजाता है; जिससे कि इनकी
१ बचनमतन्त्रमविवक्षितत्वात् ।
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