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आत्मानुशासन.
है; परंतु उतने ही गुणसे वह अपने तथा पर वस्तुओंके स्वरूपको निरनिराला प्रकाशित करता है । - दीपक जैसे अन्य वस्तुओंको प्रकाशगुण हीन, निस्तेज ऐसा दिखाता है व अपनेको प्रकाशगुणसे पूर्ण तथा सतेज ऐसा दिखाता है । वह दिखाता क्या है ? बास्तव में ऐसा ही है । इसी प्रकार साधु उस थोडेसे ज्ञान चारित्र गुणद्वारा भी शरीरादि पर वस्तुओं को जडरूप प्रतिभासित कराता है व आत्मस्वरूपको चैतन्यपूर्ण प्रकाशमान ऐसा प्रतीत कराता है । थोडा ही क्यों न हो, पर जो सच्चा ज्ञान है उससे आत्मा तथा पर वस्तुओं में जो यथार्थ भेद जड चैतन्यका है वह ज्योंका त्यों प्रतिभासित होना ही चाहिये ।
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दीपक जिस प्रकार काजलको अपनेमेंसे बाहिर करता हुआ प्रकाशको पसारता है उसी प्रकार कर्मरूप कज्जल या कालिमाको आत्मामें से बाहिर निकालता हुआ साधुका ज्ञान, स्वपरको प्रकाशित करता है । दीपक जो प्रताप है उसका काम काजलको बाहिर करना है और जो प्रकाश है उसका काम स्वपरको प्रकाशित करना है । इसी प्रकार आत्मामें जो चारित्र है उसका काम कर्मकालिमाको बाहिर नि कालना है और जो ज्ञान-गुण है उसका काम स्वपरको प्रकाशित करना है । इस प्रकार यह दीपक के साथ पूर्णोपमा संभव होती है । शुद्ध होने का क्रमः -
अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्त संध्यस्य तमसो न समुद्रमः ।। १२२ ।।
अर्थ :- जीवकी अवस्थाएं तीन हैं; एक अशुभ, दूसरी शुभ, तीसरी शुद्ध । विषयादिक मिथ्या जंजाल में फसकर रागद्वेष व अन्या - यादिक करना वह अशुभ अवस्था है । इसीको तमोगुण या तामसी वृत्ति भी कुछ लोग कहते हैं । आत्मज्ञान होनेपर जो तामसी वृत्ति से अथवा मिथ्या अनात्मीय विषयादिकसे हटकर साधुसमागम, धर्मेपदेश, मोक्षमार्ग, तप व तत्त्वज्ञानमें रुचि करना है वह शुभ अवस्था