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आत्मानुशासन..
है कि उसे कभी अपमानादि दुःखरजका स्पर्शतक नहीं होपाता। इसीलिये ग्रन्थकर्ता यह पूछते हैं कि, अपमानादि धूल चारित्रको कभी छू भी सकती है क्या ? नहीं । पर चारित्र न धारण करनेवाले विषयाधीन जन तो उस धूलसे सदा धूसरित बने ही रहते हैं । जगमें अपमानादिक ही तो बडे दुःख हैं जो कि विषयासक्तका पीछा कभी नहीं छोडते । पर वे तपस्वीके पासतक भी नहीं भटक पाते। इसलिये तप दुःख नाशका और सुख प्राप्तिका मूल कारण मानना ही चाहिये ।
और भी तपकी महिमाःइहव सहजान् रिपून विजयते प्रकोपादिकान् , गुणाः परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वाञ्छति । पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात्स्वयं यायिनी, नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि ॥ ११४ ॥
अर्थः-अनादिकालसे साथ लगे हुए अति तीव्र क्रोधादि कषायोंका इस तपके धारण करनेसे ही नाश होता है। ये कषाय जीवको संसारके दुःख भुगानेके मूल कारण हैं इसलिये शत्रुके तुल्य हैं। इनको वश करना या जीतना तपद्वारा ही हो सकता है । क्योंकि, तप करनेबालेके इंद्रिय वशीभूत हो जाते हैं जिससे कि विषयवासना छूट जानेसे क्रोधादि या रागद्वेषादि कषायोंका बीजतक धीरे धीरे नष्ट हो जाता है । विषयवासना होनेसे ज्ञानाभ्यास; विषयव्याकुलता हटनेसे शांति; तप यह श्रेष्ठ कार्य होनेसे पूजा-सत्कार मिलना; इत्यादि उत्तम जिन गुणोंके प्राप्त होनेकी अभिलाषा जी-जान देकर भी जीव उत्कटतासे रखता है वे सब गुण सहजमें ही तपस्वीको प्राप्त होते हैं। ये सब तो लाभ हुए साक्षात् जो कि सभीके देखने सुननेमें आते हैं। पर, परभवमें या कुछ कालके वाद ही उस मोक्षपदकी प्राप्ति भी अवश्य होती है कि जो जीवका सर्वोस्कृष्ट तथा अंतिम साध्य है । इस मोक्षपदसे आगे और अधिक जीवको क्या साध्य होसकता है कि जिसमें पहुचनेसे संसार-संबंध भूख, तृषा,