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हिंदी-भाव सहित ( तपस्वीके सुख )। सदा उसी फंदेके पराधीन रखते हैं। कभी कभी उन्हें मार भी डालते हैं। विषयों में अति लुब्ध हुआ प्राणी अंतमें उन्हींमें फसकर प्राण गमाता है। कामकी दुःखमयी अनेक अवस्थाओंमेंसे अंतकी मरण अवस्था ही है । काम-भोगका वियोग होनेपर अति लुब्ध हुआ प्राणी अति विचारकर संताप उत्पन्न कर शरीरको सुखादेता है और कालान्तरमें कदाचित् तीव्र आर्तध्यानके वश होकर या तीव्र वेदना बढनेपर अपने प्राण पखेरुओंको शरीरमें रोक नहीं सकता । कामके संयोगमें शरीर क्षीण होनेसे प्राणान्त होनेकी वारी आती है और वियोगमें संताप वेदना बढनेसे मरणतक होता है । इसलिये विषयोंकी लालसा हर हालतमें दुःखदायक है । इसके सतत संयोग रखनेकी इच्छासे जीव नोकरी सेवा आदि अनेक प्रकारके अपमान दुःख सहते हैं।
क्या ये सब दुःख सर्व विषयोंको छोडकर तपश्चरणमें रत होने बालेको होते हैं ? नहीं । तप तो इसीलिये किया जाता है कि शरीरसे स्नेह छूट जाय और आत्मतत्वकी सच्ची पहिचान तथा प्राप्ति हो । कामादि विकार बढानेवाले शरीर और मनकी दुष्ट भावना है । कायक्लेशादि तपोद्वारा जब शरीर सूख जायगा तो कामादि विकारोंको उत्पन्न नहीं कर सकेगा । आत्माचंतन-ध्यानद्वारा जब मन पवित्र विचारोंमें लगजायगा तो उसमें गंदे विचार न उठेंगे किंतु धीरे धीरे आत्मतत्वके ज्ञानानंदमय स्वभावको प्राप्त करलेनेसे काम-भोगादिसंबंधी, उपर्युक्त सभी दुःख दूर हो जायंगे । अब कहिये, तपश्चरण से अधिक और भी कोई परम इष्ट सुखका साधक हो सकता है ? क्या तपस्वीके चरणोंतक भी, संसारी जीवोंको पद पदपर होनेबाली अपमानादि रज पहुंच सकती है ! जो विषयाधीन होकर उनके पोषणार्थ परका आश्रय करै उसको ये सब दुःख हो । तपस्वीको इनसे क्या काम है ? अब कहिये, तप अच्छा है या विषयभोग ! अथवा, यों कहिये कि चारित्र तथा तप आदि धारण करनेवाला विषय तथा संसारसे इतना दूर रहता