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हिंदी-भाव सहित ( समाधिसे सुख )। १०५
परमात्माकी आराधना समाधिमें की जाती है। इसे कोन बुरा कहेगा ? सभी संत पुरुष इसे श्रेष्ठ कार्य समझते हैं। इसमें लगनेसे थोडीसी शांति तो तत्काल ही प्राप्त होने लगती है। इसलिये इसमें कष्ट तो माना ही नहीं जासकता है। हां, प्रारंभमें ही थोडासा सुखजनक होनेसे परिपाकमें इससे पूर्ण सुखका होना मानना अवश्य पडता है। परमात्माके चरणोंका जो ध्यान करना पडता है उसे चाहें क्लेश कहलीजिये या आनंद । क्योंकि, भगवच्चरणोंका ध्यान और अपनी शुद्ध अवस्थाका चितवन यह एक ही बात है, जिसे कि प्राप्त करना जीवका परम कर्तव्य है । भगवच्चरणोंके चितवनसे अपनी अवस्थाकी सुध आती है और उस तरफ चिरकाल तक टकटकी लगनेसे कर्म-कलंक नष्ट होकर आत्मा धीरे धीरे शुद्ध हो जाता है,-परमात्मा बन जाता है। इसीलिये यह कहा कि इस ध्यानके करनेसे काँका अत्यंत नाश हो जाता है, इतना मात्र नुकसान है। पर कर्मोंका नाश कर शुद्ध अवस्थाका प्रगट करना तो हमें इष्ट ही है । इसमें नुकसान कैसा ? इसलिये आगे चलकर यह भी लिख रहे हैं कि कर्मोंके नाशसे सिद्धिका सुख . मिलना ही तो हमारा साध्य है । और वही हमें प्राप्त होगा। दिक्त भी बहुत देरतक नहीं उठानी पडेगी, किंतु सच्ची समाधि यदि लग गई हो तो अंतर्मुहूर्तमें भी कर्मोंका नाश हो जाना संभव है। इसकेलिये सामग्री भी कहीं बाहिरसे लानी नहीं पडती । अपना अंतःकरण ही साधन है । मन जोडा कि बेडा पार । मन तो वैसे भी इधर उधर फिरता ही रहता है । उसे निस्सार कामोंमेंसे हटाकर इधर लगा देना कुछ कठिन बात नहीं है । अब देखिये, इस थोडीसी एकाग्रतासे ही जब कि परम कल्याण होसकता है तो इसको कोन बुद्धिमान् कष्ट मानेगा ? बुद्धिमानोंको स्वस्थ चित्त करके इसपर खूब विचार करना चाहिये । हम तो कहेंगे कि समाधिके वरावर कहीं भी सच्चा आनंद नहीं मिलसकता है । और फिर इसके परिपाकके आनंदका तो कहना ही क्या है ? और भी देखियेः
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