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हिंदी-भाव सहित ( तप आराधना )। १०३ आराध्यो भगवान् जगत्त्रयगुरुत्तिः सतां समता, क्लेशस्तच्चरणस्मृतिः क्षतिरपि प्रप्रक्षयः कर्मणाम् । साध्यं सिद्धिसुखं कियान् परिमितः कालो मनः साधनं, सम्यक् चेतसि चिन्तयन्तु विधुरं किंवा समाधौ बुधाः॥११२॥
अर्थः-परम ज्ञानसंपन्न तीनो जगतका स्वामी ऐसा परमात्मा समाधिमें चिंतवन करना यह तो हुआ काम, जिसे कि सभी श्रेष्ठ पुरुष अच्छा समझते हैं । उसी परमात्माके चरणोंका चितवन करना वस, इतना क्लेश हुआ समझिये । इससे कर्मोंका धीरे धीरे क्षय हो जाता है इतना नुकसान हुआ समाझये । इस समाधिके धारण करनेसे फल क्या है ? मुक्तिका सुख प्राप्त होना फल है । इसके सिद्ध करनेमें समय बहुतसा लगता होगा ? नहीं, थोडेसे समयमें ही इस समाधिकी सिद्धि होसकती है। इसके लिये सामग्री इकट्ठा करनेमें बहुत दिक्कत उठानी पडती होगी ? नहीं, अपना मन, यही केवल साधनोपाय है । अब देखिये, समाधिके साधनेमें कितनी कठिनाई है ? थोडीसी भी है या नहीं ? इस बातका बुद्धिमान मनुष्योंको खूब विचार करना चाहिये।
भावार्थ:-तपसे आत्माकी शुद्धि होना माना गया है। जैसे अमिमें सुवर्णको तपानेसे सुवर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही बाह्य अंतर दोनो प्रकारके तपों द्वारा आत्मा शुद्ध हो जाता है ।
सुख शांति ज्ञान ये आत्माके स्वभाव ऐसे विलक्षण हैं कि दूसरे किसी भी पदार्थमें नहीं मिलते । इसीलिये आत्माको अनुभवगोचर वाकी सर्व वस्तुओंसे निराला कहना पडता है । जैसे एक खास तरहका पीलापन सुवर्णका ऐसा स्वभाव है कि वह दूसरे किसीमें भी नहीं मिलता । इसीलिये सुवर्ण सव धातुओंसे एक निराली चीज मानी जाती है । और इसीलिये वह पीलापन जितना कम अधिक हो, सुवर्णमें दूसरी चीजोंका मेल भी उतना ही कम अधिक देखनेसे मालूम पड़ सकता है । जिस समय सुवर्णका वह पीलापन पूरा पूरा हो उस समय उसमें