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हिंदी-भाव सहित (शरीररक्षाका हेतु)। ११५ जनोंमें भी यही आदत है कि वे अनिष्ट संबंधसे द्वेष करते हैं, लडते झगडते हैं। पर साधु इन कर्मजनित शरीरादि दुःखकारणोंसे उतने न चिडकर कर्मबीजसे चिडते हैं और उसके नाशमें प्रवृत्त होते हैं, कि जो सर्व दुःखोंकी जड है । परंतु उस चिरसंचित तथा चिराभ्यस्त कर्मका नाश शीघ्र नहीं होसकता। उसके नाशकी तरफ लक्ष्य भी सहज
और जल्दी नहीं बँधसकता । क्योंकि, आजतक उसके नाशका उपाय कभी साधा ही नहीं है । और उसका नाश भी होगा वह शरीरकी मदतसे होगा। इसीलिये साधुजन इस उपरि लिखित ज्ञानके द्वारा शरीर नाश करनेमें शीघ्रता करनेसे रुकते हैं; न कि वैराग्यकी कमी या शरीरको हितकारी अपना समझनेके कारण । इसलिये धीरताके साथ उचित समयमें कर्म तथा शरीरादि नष्ट करनेका साधन करना यह विचारकी तथा हिताहित-विवेककी ही महिमा समझना चाहिये ।
___ कर्मका उदय भी साधुओंको मुक्ति प्राप्त होनेसे रोकता है । कर्मका फल जिस समय तीव्र उदयमें आया हो उस समय कितनी ही उत्कट इच्छा होनेपर भी कार्यकी सिद्धि नहीं होपाती है। साधुजन कर्मका तीव्र उदय होनेपर यदि चाहें और प्रयत्न करें कि हम शीघ्र ही कर्मों का नाश करें तो नहीं करसकते हैं । तीव्र कर्मोदय उस समय उन्हें समाधि-ध्यानतक नहीं लगाने देता है । उनकी प्रवृत्तिको विचलित करता है । तब मुक्तिकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसलिये साधुपद धारण करके भी कर्मके मंदोदयकी प्रतीक्षा करनी पडती है । कर्मके तीव्र उदयमें साधुजन विचार करते हैं कि कब हमें इस कर्मके मंदोदयका प्रसंग प्राप्त होगा; जब कि हम मोक्षकी साधनामें लगसकेंगे? यह कर्म कब और किसको धक्का देगा यह भरोसा नहीं होसकता है ।
__इस कर्मका तीव्र उदय तुच्छ जनोंपर या सामान्य साधुओंपर ही अपना असर डाल सकता हो, किंतु महापुरुषोंपर नहीं डालसकता है; यह बात नहीं है । संसारमें बडे बडे पराक्रमी, पुण्यशाली, तीनो लोकके पूजनीय