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आत्मानुशासन.
धन्य समझती है। किंतु जो मोतियोंकी कदर समझता है वह कभी भी ऐसा करेगा ? नहीं । इसी प्रकार जो लोग इस तपके आनंदको लूट चुके हैं बे देखिये, उसमें कैसे मग्न होते हैं कि तप करते यदि शरीर भी उसमें नष्ट होजाय तो भी कुछ परवाह नहीं है । देखोः
तपोवल्लयां देहः समुपचितपुण्यार्जितफलः, शलाहने यस्य प्रसव इव कालेन गलितः । व्यशुष्यच्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपयः,
स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥ ११५ ॥ अर्थः-जैसे पुष्प बहुत ही मनोहर चीज है, परंतु उसका प्रयोजन यही है कि आगे वह फल उत्पन्न करै । यदि फल उत्पन्न करके वेलमें लगा हुआ फूल सूखकर पडजाय, तो वह पडते हुए भी बुरा जान नहीं पडता; क्योंकि, उसने फल उत्पन्न करदिया है । इसी प्रकार मनुष्यका शरीर प्राप्त होना बहुत ही सुकृतकी बात है । परंतु उस शरीरका प्रयोजन इतना ही है कि उसपरसे आगामी सुखदायक पुण्यफल उत्पन्न हो । जो साधुजन समझ चुके हैं कि उत्तम पुण्यफलकी प्राप्ति तपश्चरणके द्वारा हो सकती है वे तपश्चरणमें ही अपना सारा आयुष्य विताकर अंतमें शरीरको भी उसी में खिपा देते हैं। वे धन्य हैं । तप क्या है ? विषय-जंजालमें फसनेसे उत्पन्न होनेवाली व्याकुलता या अशांतिको छोडकर आत्मीय शांति प्राप्त करना है । क्योंकि, समाधि-तप सर्वोत्तम तथा सर्वोपरि तप है। उसमें केवल सच्ची स्वाधीन शांति ही शांति है। उसमें मग्न होनेवालेको साक्षात् शांति तो प्राप्त होती ही है किंतु विषयव्यामोह छूट जानेसे मोह-अज्ञानवश बँधनेवाले पाप-कर्मोंका बंधन भी वंद हो जाता है । यदि बंध हो तो केवल पुण्य कोका । इसलिये यह तपश्चरणरूप लता पुण्यकर्मरूप नवीन फल उपजानेवाली है। जैसे पुष्प नवीन फल उपजाकर खिरजाता है इसी प्रकार इस तपश्चरण-लतामें जुडा हुआ शरीर धीरे धीरे क्षीण होकर नष्ट हो जाता है । परंतु नष्ट