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हिंदी-भाव सहित ( तपकी महिमा)। १०९ भय, खेद, जनन, मरण, जरा-रोग इत्यादि सर्व क्लेश निर्मूल नष्ट हो जाते हैं ? क्यों न हो ? जहां कर्मक्षय होजानेके कारण, अज्ञान तथा मोहवश होनेवाले कर्मजन्य दुःखोंसे छुटकारा मिलता हो वहां जीवको कोन दुःखी कर सकता है ? मोक्षमें इन सव दुःखोंके बीजभूत कर्मोंका निर्मूल नाश होजाता है तो फिर वहांसे अधिक सुख कहां होगा ? दुःख सव पराधीनता या विजातीय वस्तुके मेलमें ही होता है । वह पराधीनता जो कि कर्मजन्य है वह वहां नहीं रहती तो फिर दुःख वहां किस बातका हो ? ऐसे अचिन्त्य सुखधाम मोक्षपदकी भी प्राप्ति जब कि इस तपसे हो जाती है तो बाकी अब क्या रहा है ।
बुद्धिमान मनुष्यको किसी काममें चाहें प्रत्यक्ष फल न मिलने वाला हो, पर परिपाकमें यदि उत्तम फल मिलता दीखता हो तो उस कार्यको बुद्धिमान् अवश्य करता है । किंतु अज्ञानी मनुष्यकी इससे उलटी रिवाज होती है । उसे चाहें परोक्ष फल किसी काम करनेका मिलना संभव हो या न हो, पर प्रत्यक्ष फल यदि मिलता दीखै तो वह उस कामको अवश्य करता है । पर यह तपश्चरण ऐसी चीज है कि इसका फल प्रत्यक्ष भी है तथा परोक्ष भी है । और वह इतना उत्कृष्ट है कि जिससे सर्व क्लेश सदाकेलिये जडमूलसे नष्ट होकर सर्व शाश्वत आनंद प्राप्त हो जाता है । अब कहिये, मनुष्यकी इसमें भी प्रवृत्ति न हो तो किसमें होगी?
___ अधिक क्या कहें; जिन मनुष्योने तपका आनंद भोगा नहीं है वे ही इसका लाभ समझ नहीं सकते हैं । जैसे भिल्लनी, जिसने कि सच्चे मोतियोंकी कदर समझी नहीं है वह वनगजोंके मस्तकसे बिखरे हुए मोतियोंको देखकर भी उन्हें नहीं छूती पर; गुंजाओंको समेट समेट कर उनके अनेक आभूषण, बनाती है और उन्हें पहन कर अपनेको १ यो यस्य नो वेत्ति गुणप्रकर्ष स तस्य निन्दः सततं करोति । यथा किराती करिकुम्भजातां मुक्तां परित्यज्य बिभर्ति गुआम् ॥