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आत्मानुशासन.
बंधुजनोंके द्वारा जो विवाहादि उपकार होते हैं उन्हें अपकार
सिद्ध करते हैं:जन्मसंतानसंपादिविवाहादिविधायिनः। - स्वाः परेऽस्य सकृमाणहारिणो न परे परे ॥ ८४ ॥
अर्थ:-चिरकालपर्यंत जन्ममरणोंके दुःख देनेवाले अशुभ कर्मोका संबंध, विवाहादिक रागवर्धक कार्योंके करनेसे होता है। इसलिये जो कुटुंबी जन हित समझकर विवाहादिक कराकर जीवको संसार वासनाओंमें फसाते हैं वे असली वैरी हैं, क्योंकि, उनके उपकार करनेसे जीवको चिरकालतक संसार दुःख भोगने पडेंगे । जो कि एक वार प्राण हरलेते हैं उन वैरियोंको असली वैरी नहीं समझना चाहिये; क्योंकि, एक तो एकवार प्राण हरलेनेमात्रसे उन बंधुजनोंकी बराबर उनका अपराध नहीं होता कि जो बंधुजन, रागभाववर्धक कारण मिलाकर जीवको चिरकालतक दुःखदायक कर्मोंसे बद्ध करादेते हैं, दूसरी यह बात कि जो प्राण हरने बाले हैं वे अपराधी ही नहीं हैं। अपराधी वह होता है जिसने स्वयं कुछ अपराध किया हो। जबतक आयुष्य कर्मकी उदयावली प्रबल है तथा दूसरे भी शुभ कर्मोंका उदय होरहा है तबतक जीवका मारनेवाला कोन है ? जब कि आयुकर्म पूर्ण हुआ तब विना मारे भी जीव मरजाता है । इसलिये वेचारे पामर जीवको प्राणघातमें निमित्तमात्र हो जानेसे प्राणहर्ता कहना भूल है । तीसरी बात यह भी है कि जो ऋणको छुडाता है वह ऋण छुडाते समय चाहें दुःखदायक जान पडता हो परंतु असली दुःखदाता नहीं है और जो ऋण कराता है वह उस समय चाहें सुखदायक ही जान पडता हो तो भी उसे दुःखदाता ही कहना चाहिये । जो आयुकर्म पहले बांधलिया है और अब उदयमें आरहा है वह पूरा हुए विना तो दूर हो ही नहीं सकता, परंतु जो कोई उसे शीघ्र ही पूरा करदे उसे
१ 'स्व' नाम अपना, अथवा बंधुजन । 'पर' शब्दका अर्थ शत्रु है।
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