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आत्मानुशासन. इसीलिये (१) जो विषयोंको पूर्ण निस्सार समझ चुके हैं, (२) जो लक्ष्मीको पाप तथा असंतोषका कारण मान चुके हैं और (३) जो इसीलिये दूसरोंको दे देना भी उचित नहीं समझते ऐसे तीनो प्रकारके मनुष्य ग्रहण की हुई लक्ष्मीको सहजमें ही छोड देंगे। उन्हें वह विना छोडे चैन भी नहीं पडेगा । क्योंकि, वे उस लक्ष्मीका सारा अंतरंग स्वभाव प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं। उन्हें पूरा विश्वास हो गया है कि लक्ष्मी असली सुखका कारण नहीं है; उलटी सदा दुःखदायक ही है । इसीलिये उन महात्माओंसे वह लक्ष्मी अपने आप छूट जाती है । उन्हें उसके छोडनेमें प्रयत्न करना नहीं पडता । परंतु (४) जिन्होंने अभी उस लक्ष्मीको छुआ तक ही नहीं है-जो अभी बाल्य अवस्था छोडकर स्त्री-पुत्रादिके उपभोक्ता और अत एव लक्ष्मी संग्रह करनेके लिये प्रवृत्त ही नहीं हुए हैं वे यदि पहलेसे ही उसे छोड दें तो अधिक आश्चर्य है। क्योंकि, उन्हें उसका प्रत्यक्ष परिचय नहीं हुआ इसलिये वे उसके सुख-दुःखसे पूरे परिचित नही हो पाये हैं; तो भी उसे छोडनेके लिये उत्कंठित होगये हैं । तब, इस त्यागमें परम वैराग्य हो जानेके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है । जब परम वैराग्य उपज जाता है तब विषयोंके छोडनेमें उनके अनुभव करनेकी आवश्यकता नहीं रहती । क्षणिक तथा जड पदार्थोंसे उस समय अपने आप विरक्तता उत्पन्न होती है
और वह विरक्तता आत्माको उन विषयोंसे द्वेष न कराकर सहज निराला करलेती है। किंतु जो भोग भोगकर उन भोगोंके दुःखोंसे परिचित होकर उन्हें छोडनेकी इच्छा करते हैं उनमेंसे संभव है कि एक दो, उन दुःखोंका विसर पडनेपर फिर भी कदाचित् उनमें मोहित हो जाय । इसीलिये जो न भोगकर विरक्त हुए हों वे छोडते समय पूर्वोक्त तीनोंके वैराग्यसे उत्कृष्ट वीतराग हैं । या यों कहिये कि, वे ही परम विरागी हैं। उनका वैराग्य आत्मामें ओतप्रोत भरचुका है। इसीलिये
१ पहले श्लोकका खुलासा.