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हिंदी -भाव सहित ( त्यागका फल ? ) ।
है । कुटीप्रवेश - क्रिया से पहले के साधन मिल जानेपर भी जबतक कुटीप्रवेश नहीं हो पाता तबतक शरीर की शुद्धि नहीं हो पाती । पूर्व क्रिया करनेपर यदि कुटीप्रवेश भी हो जाय तो अवश्य शरीर शुद्धि होती है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन -ज्ञान पूर्वक चारित्रका ग्रहण करने से संसार छूटकर मोक्ष प्राप्ति नियमसे हो जाती है। केवल सम्यग्दर्शन -ज्ञानसे वह मोक्ष नहीं मिलता और चारित्रकी प्राप्ति दर्शन - ज्ञानके पहले नहीं होती, ये बातें इस उपर्युक्त दृष्टान्तसे स्पष्ट हो जाती हैं ।
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मोक्ष चीज तो बडी ही अपूर्व है, अनुपम है, अनन्त अविनाशी अचिन्त्य सुखका धाम है; पर, उसकी ऐसी महिमाका प्रत्यक्ष करदेना संसारी जनों के सामने कठिन बात है । इसीलिये संसारी जनों को ' अजरामर ' विशेषण कहकर उसका अनुभव कराना ग्रन्थ- कर्ताने उचित समझा । मनुष्यों को जरा मरणके दुःख सबसे बड़े दीखते हैं। इसलिये आचार्य यह दिखाते हैं कि ये भी दुःख उस मोक्षमें नहीं रहते तो औरोंकी क्या बात है ? अथवा यों कहिये कि, मोक्ष तथा संसार में यदि स्थूल अंतर देखना हो तो जरामरणका ही अंतर है । संसारमें मनुष्यों को जहां कि निरंतर और असह्य जरामरणके दुःख भोगने पडते हैं, वहां मोक्ष प्राप्त होनेपर वे सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं - स्पर्श भी उनका फिर कभी नहीं हो पाता । वस, इतनेसे ही अनुभव हो सकता है कि मोक्ष कितने सुखका पिण्ड है ? इसकी प्राप्तिका जब कि अंतिम साधन चारित्र या त्याग है तो उस त्यागका सर्वोत्कृष्ट प्रकार कैसा होगा यह बात विचारने योग्य हुई इसलिये,
सर्वोत्कृष्ट त्यागका स्वरूप और वैसे त्यागियोंकी प्रशंसा :अभुक्त्वापि परित्यागात् स्वोच्छिष्टं विश्वमासिंतम् । येन चित्रं नमस्तस्मै कौमारब्रह्मचारिणे ॥ १०९ ॥
' विश्वमा शितंम् ' ऐसा भी पाठ है.
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२. कुमारब्रह्मचारिणे' ऐसा भी पाठ है।
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