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हिंदी-भाव सहित ( सर्वोत्कृष्ट त्याग )। उपाय है । इस लक्ष्मीके त्यागनेके अनेक ढंग हैं । (१) कोई जीव जब विषयोंको तिनकेकी भांति असार समझ जाता है तो वह उस लक्ष्मीको याचक जनोंकेलिये देडालता है; और पहले इसी तरह बहुतोंने दिया है । (२) कोई जीव उस लक्ष्मीको ऐसा समझता है कि यह पापके बढानेवाली है और संतोष का नाश करनेवाली है । यह समझ कर भी किसीको दी तो नहीं, पर पुत्रादिकोंके आधीन घरमें छोडकर वह त्यागी बनगया । या ( ३ ) उसके लेनेसे लेनेवाला भी पापी वन जायगा यह समझकर किसीको दी तो नहीं किंतु यों ही उसे छोडकर तपस्वी बनगया । ( ४ ) और कोई विवेकी ऐसा होता है कि जो उसे अहित-कारिणी मानकर छूता ही नहीं किंतु उस लक्ष्मीका संबंध होनेसे पहले ही घर छोडकर वीतरागी तपस्वी बन गया हो । ये सभी त्यागी उत्तम हैं; पर उत्तरोत्तर अधिक अधिक श्रेष्ठता है। सवसे उत्कृष्ट वे ही त्यागी हैं कि जिन्होंने लक्ष्मीका ग्रहण ही नहीं किया किंतु अनर्थकी जड समझ कर उसे पहलेसे ही छोडकर वनवासी बन गये हों । क्यों ?
विरज्य सम्पदः सन्तस्त्यजन्ति किमिहाद्भतम् । . . मावमीत् किं जुगुप्सावान् सुभुक्तमपि भोजनम् ॥१०३॥
अर्थ:-जबतक विषयोंमें राग भाव बना हुआ है तबतक तो हाथसे लक्ष्मी छूटती नहीं है किंतु अकस्मात् जानेपर भी उन्हें उसके वियोगका दुःसह दुःख होता है । पर जो संत पुरुष संपदा को निस्सार जान उससे विरक्त हो चुके हैं वे उसे सहजमें ही छोडदेते हैं। उनके छोडदेनेका कुछ अचिरज नहीं करना चाहिये । जब उसकी निस्सारता प्रगट हो चुकी तो उससे विमुख होना क्या बड़ी बात है ? यदि किसी भोजनसे किसीको ग्लानि हो चुकी हो तो फिर वह भोजन चाहे कितना ही अच्छी तरह क्यों न खाया गया हो पर तो भी क्या उसका वमन नहीं हो जायगा ? अवश्य हो जायगा ।