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आत्मानुशासन.
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विमृश्य चैर्गर्भात्प्रभृति मृतिपर्यन्तमखिलं, सुधाप्येतत् शाशुचिभयनिका राघबहुलम् । बुधैस्त्याज्यं त्यागाद्यदि भवति मुक्ति जडधीः, स कस्त्यक्तुं नालं खलजनसमायोग सदृशम् ॥१०५॥ अर्थ :- खूब विचार करो तो मालूम पडेगा कि गर्भसे लेकर आखिरतक यह शरीर क्लेशों से भरा हुआ है, अति अपवित्र है, सदा भयदायक है, कुटिलताका पुंज है, तिरस्कार करानेका मुख्य हेतु है, पापों की सदा उत्पत्ति करता रहता है। इसीलिये विवेकी मनुष्य इसे छोडना पसंद करते हैं । और फिर भी जिसके छोडने से यदि मुक्ति प्राप्त होने वाली हो, या सव तरहके क्लेश दुःख दूर हो सकते हों तो उसे कोन ऐसा मूर्ख होगा जो छोडना न चाहता हो ? ठीक इस शरीरका संबंध एक दुष्ट जनके संबंध के तुल्य है । दुष्ट जनों के संबंध से क्लेश होता है, अपवित्रता रहती है, अनेक प्रकारके भय होते रहते हैं, तिरस्कार सहने पडते हैं । वैसे ही इस शरीर के संबंध से भी ये सब बातें पैदा होती हैं । दुष्ट जन निष्कारण दुःखदायक होते हैं, शरीर भी निष्कारण ही दुःख देता है । इसलिये जब कि दुष्ट जनके समागमसे सभी दूर रहना चाहते हैं तो शरीर से भी दूर होनेका प्रयत्न करना चाहिये । इसका जबतक संबंध है तबतक दुःखोंसे छुटकारा मिलना या परम कल्याण प्राप्त होना भी असंभव है । इसलिये इसका छोडना सभी विवेकी जनों को पसंद होना चाहिये ।
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परंतु सीधा शरीरको छोडने से शरीर थोडा ही छूटता है ? एक शरीर छूटेगा तो दूसरा नवीन शरीर धारण करना होगा | रागद्वेष तथा मिथ्या ज्ञान जबतक निर्मूल नहीं हुए हों तबतक शरीरका संबंध इसी प्रकार लगा रहेगा । पूर्ववद्ध कर्मके उदयसमय में नवीन रागद्वेष उत्पन्न होते हैं जिससे कि नूतन कर्मबंध हो जाता है। इस कर्मका भी उदय प्राप्त करके फिर नए कर्मको बांधता है। इस प्रकार कर्म तथा राग