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हिंदी-भाव सहित ( साधुओंका निस्स्वार्थ उपदेश )। ८३ धर्मसे ही ये सव मनोरथ पूर्ण हो सकते हैं तो उस धर्मका ही साक्षात् सेवन क्यों न किया जाय ? क्यों फिर संसारी जनोंकी सेवा दिन विताये जाय ?
साधुओंकी विनानिमित्त बंधुताःशरीरेस्मिन् सर्वाशुचिनि बहुदुःखेपि निवसन् , व्यरंसीन्नो नैव प्रथयति जनः प्रीतिमधिकाम् । इमां दृष्ट्वाप्यस्माद्विरमयितुमेनं च यतते, यतियोताख्यानैः परहितरतिं पश्य महतः ॥ ९७ ॥
अर्थः-अनेक दुःखोंके कारण तथा मलमूत्रादिकी अपवित्रतासे मरे हुए इस शरीरसे जीव विरक्त नहीं होता यह बात तो अलग ही रही, पर ऐसेके साथ अधिक प्रीति न करता हो यह भी तो उससे नहीं बनता है । उलटा उस शरीरके साथ अधिकाधिक प्रीति करता है । खैर, यह प्राणी तो भूल ही रहा है पर, इसे कोई यह सुझाता भी तो नहीं है कि तू ऐसा मत कर । इस प्राणीके जितने बंधुजन तथा मित्र हैं वे सब कर्कश तथा अप्रिय लगनेके डरसे ऐसा एक शब्द भी कभी नहीं बोलते कि जिससे उस प्राणीकी शरीरसंबंधी प्रीति कम हो । परिपाकके सयय चाहे वह कितना ही दुःखी होनेवाला क्यों न हो पर, उसके मित्र बांधव सदा वही बात सुनाते और दृढाते हैं कि जिससे उसे तत्काल अनिष्ट न भासता हो । इसीलिये वे सच्चे मित्र बांधव नहीं हैं; क्योंकि, वे अहितसे उसे रोकते नहीं हैं । तो फिर सञ्चा मित्र या बांधव कोन है ? जो उस अहित प्रवृत्तिसे उसे बचाता हो । ऐसा कोन है ? ऐसे साधु संतपुरुष होते हैं कि जो जीवोंकी शरीरादिके साथ उत्कट प्रीति देख कर भी यह विचार नहीं करते कि इन जीवोंको हमारा उपदेश कठोर लगेगा । किंतु, वे फलसमयमें हितावह समझकर अपने सार उपदेशको सुनाते ही हैं और परिपाकसमयमें. दुखदाई ऐसे शरीर-प्रेमको छुडानेका यत्न करते ही रहते हैं । अहो संसारके जीवों,