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आत्मानुशासन... ऐसे महापुरुषोंके निष्कारण परहितकी तरफ देखो । ये महापुरुष ही सच्चे मित्र या हितू हैं । क्या जीवोंको हितोपदेश सुनानेके बदले उन जीवोंसे उने कुछ मिलेगा ? नहीं । उनका स्वभाव ही परम दयालु होता है कि जिससे वे सदा सवोंका निष्कारण हित साधन करनेमें प्रवर्तते हैं।
भावार्थः-अरे भाइयों, जब कि वे महापुरुष निनिमित्त तुझे शरीरादिके साथ प्रीति करनेसे रोकते हैं तो समझना चाहिये कि सचमुच वह प्रीति दुःखदायक होगी। और इतना तो अपने अनुभवगोचर भी हो सकता है कि जो शरीरसे प्रेम करते हैं वे शरीरके ही रक्षण-पोषणमें लगे रहकर अपना जीवन नष्ट कर देते हैं । वे थोडेसे शरीरके कष्टको बडा समझकर कायर और कष्टी होते हैं । वे जीव शरीरकी हितचिंतनामें सदा मग्न रहनेसे आत्मकल्याणकी तरफसे सदा ही विमुख रहते हैं। शरीरकी रक्षाकेलिये अन्याय भी करनेसे कभी कभी- चूकते नही हैं । इंद्रियोंसे प्रेरित हुए अनेक संकटोंका सामना करते हैं । पर यह शरीर तथा इंद्रियां क्या सदा बनी ही रहेंगी ? नहीं । कभी न कभी अवश्य इन्हें छोड परलोक जाना ही पडेगा । इसीलिये विनश्वर इस शररीरादिके फंदेमें फसकर जीव अपने अविनाशी आत्मकल्याणको हाथसे जाने न दें, यह विचार कर संतपुरुष कर्कश या अप्रियपनेकी तरफ लक्ष्य न देकर जीवोंको इस शरीर-प्रेमसे हटानेका सदा उपदेश देते हैं । किसीने साधुओंकी यह स्तुति जो की है वह ठीक ही की है कि 'परोपकाराय सतां हि चेष्टितम् ' संतोंकी सर्व चेष्टा परोपकारकेलिये ही केवल होती है, उसमें स्वार्थका लेशमात्र भी नहीं रहता।
सारांश:इत्थं तथेति बहुना किमुदीरितेन, भूयस्त्वयैव ननु जन्मनि भुक्तमुक्तम् ।