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आत्मानुशासन.
तू मरनेसे डर रहा है । यह उत्प्रेक्षा अलंकार कहाता है । कविने इसमें मरणसे डरनेका कारण कल्पनाद्वारा सिद्ध किया है।
___अज्ञानसे अपना नाश आप ही किया । देखःअजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमुग्धेन भवादितः पुरा । यदत्र किंचित् सुखरूपमाप्यते तदार्य विद्धयन्धकवर्तकीयकम् ।१००/ ____ अर्थः-अब कदाचित् तू उपदेश पाकर सुधर जायगा। पर अभीतक तो तुझै कर्तव्याकर्तव्यका कुछ भी ज्ञान नहीं रहा । तेने आजतक अपने ही हाथसे अपने ही नाशके कारण इकट्ठे किये । जैसे कोई बकरा कटनके लिये आप ही जमीनमें गढी हुई छुरीको पैरोंसे खोदखाद करके काटने बालेके सामने करदे । अथवा ऊपरसे पडती हुई तलवारके नीचे आप ही अपना शिर झुकादे, जिससे कि वेमोत ही उसका मरण हो जाय । ठीक ही है, जबतक हिताहितका ज्ञान ही नहीं है तबतक अपने हाथसे अपना अहित करलेना भी क्या बड़ी बात है ?
यहां शंका है कि जीवों के सभी काम जब कि दुःखदायक नहीं हैं तो सभीको अजाकृपाणीय या आप ही अपना घातक कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि, जो जीव जबतक आत्मकल्याणकी खोजमें नहीं लगा है तबतक उसकी सारी क्रियाएं चाहे सुखसाधक दीखती हों या दुःखसाधक, पर बाहिरी मोहसे भरी हुई होने के कारण उन्हें पाप तथा दुःखके ही कारण कहना चाहिये । और कदाचित् पंचेन्द्रियसंबंधी भोगोपभोगकी सिद्धि होते देखकर उन क्रियाओंको सुखसाधक भी मान लिया जाय तो भी यह विचारना चाहिये कि ऐसी क्रियाएं कितनी हैं ? सुख कितनी जगह होते हुए दीख पडता है ? इस प्रकार विचार करेंगे तो जान पडेगा कि सुखका मिलना बहुत ही कठिन है। दुःख कष्ट आपत्ति विपत्ति पर्वतके वरावर तो सुख--शांती सरसों वरावर । इसीलिये ऐसा कहा कि जो कुछ इस दुःखमय संसारमें
१ इसीको 'अजाकृपाणीय ' न्याय संस्कृतभाषामें कहते हैं ।