________________
आत्मानुशासन. बचकर भी क्या करना चाहियेःअव्युच्छि नैः सुखपरिकरैलालिता लोलरम्यैः, श्यामाजीनां नयनकमलैरर्चिता यौवनान्तम् । धन्योसि त्वं यदि तनुरियं लब्धबोधो मृगीभि-, दग्धारण्यस्थलकमलिनीशझ्यालोक्यते ते ॥ ८८॥
अर्थः---अन्तराय रहित जो विविध सुख, उनसे जिस शरीरकी लालना हुई हो, सुंदर स्त्रियोंके चंचल रमणीय नेत्रकमलोंसे जिस शरीरका निरंतर सत्कार होता रहा हो, अर्थात् जिसने स्त्रियों के चंचल नेत्र देखनेमें अपना आजतकका समय गमाया हो, ऐसा तेरा जन्मसे लेकर सुखमें लीन रहा हुआ जो शरीर है वह यदि ज्ञान प्राप्त होकर सचे तपश्चरण करनेमें ऐसा लीन हो कि विचरती हुई हरिणी उस शरीरको देखकर जले हुए जंगलका मुरझाया हुआ गुलाव (स्थलकमलिनी ) समझकर निर्भय देखने लगजांय, तो मैं तुझे धन्य समझता हूं । भावार्थ, जिस दिन तेरी ऐसी अवस्था होगी तभी मैं तुझै धन्य मानूंगा। जो जन्मसे लेकर दुःखी हैं वे यदि तपश्चरणादि कष्टोंको सहें तो सहज सहसकते हैं; क्योंकि, उन्हें दुःख सहन करनेका अभ्यास हो चुका है। परंतु जो जन्मके सुखी हैं, कभी कष्टका नामतक नहीं सुनते, वे यदि इस उत्तम धर्मको धारण करें तो अधिक महत्वकी बात है । ऐसे मनुष्य विषयसे रहित सच्चे धर्मको तभी धारण कर सकते हैं कि यदि उन्हें सच्चा धर्मसे प्रेम उत्पन्न हो चुका हो।
बाल्ये वेत्सि न किंचिदप्यपरिपूर्णाङ्गो हितं वाहितं, कामान्धः खलु कामिनीद्रुमघने भ्राम्यन् वने यौवने । मध्ये वृद्धषार्जितुं वसु पशो क्लिश्नासि कृष्यादिभि-,
वृद्धो वार्धमृतः क जन्मफलितं धर्मो भवेनिर्मलः ॥८९॥ १ 'जन्मफालते' ऐसा मूल पाठ मिला था पर जन्मका फलभूत ऐसा 'धर्म' का विशेषण करदेनेसे अर्थ ठीक बैठता है।