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भारमानुशासन.
हैं। विचार तो ढेरों करें पर तो भी जिन्हें अपने कर्तव्यकी कुछ परवार ही नहीं है ऐसे जीवोंको देखकर संतपुरुषोंको बडा खेद होता है। क्योंकि, वे समर्थ होकर भी हाथसे मौका जाने देते हैं।
भावार्थ:-संसारमें एकेन्द्रियादि पशु नारकादि ऐसे पर्याय बहुत हैं कि जिनमें पडे हुए जीवोंको सच्चा कल्याणमार्ग सूझता ही नहीं है। कहीं कहीं कुछ सूझता भी है तो वाकी साधन नहीं मिलते जिससे कि वे कुछ करसकें । एकमात्र मनुष्य पर्याय ही ऐसा है कि जिसमें विवेक, कुल, संगति संतउपदेश आदि कल्याण साधनेकी पूरी सामग्री मिल सकती है । पर उसमें भी सबोंको वह सारा जोग मिलता नहीं है। और जहांतक ऐसा है वहांतक यदि कुछ हाथसे हो नहीं पाता तो भी देखकर गम नहीं होता। किंतु जो सर्वप्रकार इस मनुष्य-पर्यायमें संभव साधन पालेते हैं और अनुभव तथा विवेक भी जिन्हें परलोकका हो जाता है वे जब कि सारा जन्म 'आजका कल' करते ही निकाल देते हैं तो उनपर साधु संतोंको बडा पश्चात्ताप होता है । क्योंकि, जो समर्थ और धर्म धारणके अधिकारी हो चुके हैं वे यदि धर्म धारण नहीं करते तो कौन करेगा ? इसलिये जिन्हें परलोकके सुधारका विवेकज्ञान उत्पन्न हुआ है उन्हे चाहिये कि वे धर्म धारण तथा सेवन करनेमें विलम्ब न करें। किसीका यह कहना ठीक है कि
काल करै सो आज कर, आज करै मो अब्ब । पलमें परलय होयगा फेरि करेगा कब्ब ? जीनेका कुछ भरोसा नहीं है कि कब यहांसे चल वसेगा !
धर्मका आराधन छोड परसेवा करनेबालेको उपदेशः-- लोकाधिपाः क्षितिभुजो भुवि येन जाता,स्तस्मिन् विधौ सति हि मर्वजनप्रसिद्ध । शोच्यं तदेव यदमी स्पृहणीयवीयो,स्तेषां बुधाश्च वत किंकरतां प्रयान्ति ॥ ९५ ॥ १ . लोकाधिकाः ' ऐसा पाठ भी संस्कृत टीकाकारने लिखा है।