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आत्मानुशासन.
केवल बडी बडी आशा करते बैठना प्रमथ श्रेणीके मूर्खका लक्षण है । आशा करनेवाला केवल अपनी धुनिमें ही सारा समय निकालता है, करता धरता कुछ नहीं । उसकी बुद्धि धर्ममें भी लगती नहीं और कर्ममें भी लगती नहीं। इसलिये धर्म-कर्म विना वह सुखी कहांसे हो ? उसकी दशा एक शेखकीसी हो जाती है कि जो सरायके द्वारपर बैठा हुआ भीतर आते हुए घोडे, हाती, धन, दौलत वगैरहको देखकर अपनाता हुआ खुशी होता था; और रातबसेरा कर, जाते हुए देख दलगीर होता था। क्या उसको ऐसी केवल आशा धरके निष्कर्म बैठनेसे कुछ मिल जाता था ? कुछ नहीं । यही दशा केवल आशाग्रस्त सभी संसारी जीवोंकी है । इसलिये आशा छोडकर निश्चय-व्यवहाररूप धर्ममें लगना सभीको उचित है।
पुण्य संचित करनेका उपदेशःआयुःश्रीवपुरादिकं यदि भवेत् पुण्यं पुरोपार्जितं, स्यात् सर्वं न भवेन तच्च नितगमायासितेप्यात्मनि । इत्यायोः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्यत्र मन्दोद्यमा, द्रागागामिभवार्थमेव सततं प्रासा यतन्तेतराम् ॥ ३७॥
अर्थः-दीर्घ आयुष्य, लक्ष्मी, उत्तम शरीर इत्यादि सांसारिक विषय-सुखकी सामग्री उत्तम तभी मिलसकती है कि यदि पहले कभी पुण्य कर्मका उपार्जन किया हो। नहीं तो चाहें जितना निरंतर आत्माको क्लोशित किया जाय परंतु कुछ भी प्राप्त नहीं होता । ऐसा विचार कर ही श्रेष्ठ पुरुष, जो कि समयानुसार अपना काम सिद्ध करनेमें कुशल हैं, वे इस वर्तमान जन्मके लिये तो यह विचार कर उद्यम विशेष नहीं करते कि, जो कुछ पूर्वका पुण्यसंचय हमारे पास होगा तदनुसार ही हमको इस समय फल मिलेगा। क्या केवल उद्योग कार्यकारी हो सकता है ? नहीं । इसीलिये आगामी जन्मकेलिये वे निरंतर शीघ्रताके साथ और अत्यंत प्रीतिके साथ पुण्य संचय करनेमें असीम प्रयत्न करते हैं।