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आत्मानुशासन. भोगनेकी वारी आया करै । क्योंकि, पर वस्तुओंमें रागद्वेष होनेके कारण विभाव परिणाम होनेसे जो शरीरजनक पापकर्म बँधता है वह जीवकी परिस्थिति स्वाभाविक रहनेपर नहीं बँधेगा । जब कि शरीरका बीज ही नहीं रहेगा तो नवीन शरीरका अंकुर किस तरह प्रगट होगा? इस प्रकार स्वाभाविक परिणति रखनेसे क्रमशः शरीरका अभाव, तजन्य दुःखोंका उच्छेद तथा अव्याबाध सुखमय मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है।
कालकी अनिवार्य गतिका दृष्टान्तःअविज्ञातस्थानो व्यपगततनुः पापमालिनः, खलो राहु स्वदशशतकराकान्तभुवनम् । स्फुरन्तं भास्वन्तं किल गिलति हा कष्टमपरम्, परिमाप्ते काले विलसति विधों को हि बलवान् ॥७६॥
अर्थः-पहलेसे जिसका इतना पता भी नहीं लगपाता कि यह कहांपर है, कहां होकर आवेगा; जिसको लोग शरीररहित कहते हैं; दूसरोंको निगल जाता है इसलिये जो पापी है; जिसका देह काला अत्यंत मलिन है । ऐसा दुष्ट राहु, प्रकाशमान उस सूर्यको भी समय पाकर गिल जाता है जो कि सूर्य अपने देदीप्यमान हजारो किरणों द्वारा संपूर्ण लोकको प्रकाशित करता है । इसी प्रकार जिस जीवका भी आयु:कर्म भोगकर चुक जाता है उसका अंतकाल आजाने पर पापोदय होनेसे ऐसा कोन बलवान् है जो फिर उस जीवको बचा सकता हो ? अहा, वह कष्ट अवाच्य है । यह यम भी ठीक राहुके समान ही है, क्योंकि, यह भी शररिरहित अमूर्तिक है, इसके रहनेका भी कोई नियत स्थान नहीं है, यह भी पापी है, मलिन है । जो घातकी हो उसीको लोग मलिन, दुष्ट कहते हैं । इसीलिये कविजन कालका स्वरूप काला, भयंकर, क्रूर, हिंसक वर्णन करते हैं।
कालको ऐसा मानना केवल उपचरित नयके अनुसार है, न कि उसका ऐसा स्वरूप यथार्थ ही है। क्योंकि, काल-द्रव्यके जो दो भेद