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आत्मानुशासन.
कुशलविलयज्वालाजाले कलत्रकलेवरे, .. कथमिव भवानत्र प्रीतः पृथग्जनदुर्लभे ॥ ८० ॥
अर्थः-- स्त्री अमर्यादित आसक्त होनेवाले मनुष्य, क्या आत्महितसे वंचित होकर अनेक पाप संचित करके नरकमें नहीं पडेंगे ? अवश्य पडेंगे । जब कि ऐसा निश्चित है तो स्त्रीरत मनुष्योंको नरककी घोर आपत्तियोंमें प्रवेश कराने के लिये स्त्रीका शरीर, खुला हुआ बडासा दरवाजा ही समझना चाहिये । इसीलिये अनेक उपकार करनेवाले जीवका भी इससे अपकार ही हुआ कहना चाहिये और मनुष्यके कल्याणको भस्म करनेके लिये इसे प्रखर आमिज्वाला समझना चाहिये। अरे, यह कलत्रका कलेवर, नीच, पामर, अज्ञानी जनोंको दुर्लभ्य सरीखा जान पडता है । तूं इसका स्वरूप अकल्याणकारी समझकर भी क्यों इससे प्रीति करता है?
पुरुषोंको मुख्य मानकर उनको संबोधकर यह उपदेश दिया गया है किंतु स्त्रीकेलिये जब यह उपदेश समझना हो तब ऐसा अर्थ करना चाहिये कि, स्त्रियां कुत्सित व्यभिचारी पुरुषोंके संबंधसे व्यसनोमें आसक्त होकर आत्महितसे वंचित रहती हुई अनेक पाप संचित करके क्या नरकोंमें नहीं पडती ? अवश्य पडती हैं, और उनको नरकोंमें पाडनेके निमित्त पुरुष होते हैं। इसलिये वे उन्हें नरकके घोर दुःखोंमें प्रवेश करानेके लिये उघडे हुए विशाल द्वारके समान हैं । एवं पुरुषोंका कामपूर्ण अंग, त्रियोंके समस्त कल्याणको जला डालनेबाला जाज्वल्यमान अमिस्फुलिंगके समान है । गृहधर्ममें स्त्रियोंके द्वारा पुरुषोंको जो अनेक उपकार मिलते हैं उनके बदलेमें, वे पापी पुरुष हैं कि जो उनको नरकोंमें डालकर उनका अपकार करनेवाले हैं। कामसेवनकेलिये समर्थ ऐसे पुरुषोंका प्राप्त होना वे ही स्त्रियां दुर्लभ समझती हैं जो नीच, क्षुद्र, अज्ञानपूर्ण हैं । उत्तम स्त्रियोंको वह शरीर कुछ भी अपूर्व अनुपम तथा दुर्लभ नहीं जान पडता है; क्योंकि, पुण्यके उदयसे