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हिंदी-भाव सहित ( जीवनकी असारता )। ६७ उत्तमसे उत्तम पुरुषोंका संबंध होना सहज है तो भी निस्सार होनेसे आदरणीय नहीं है । इसीलिये हे कुलीन भगिनियों, तुम इसमें आसक्त मत हो जिससे कि तुझे अनेक भवोंतक नरकादिके घोर दुःख भोगने पड़ें।
व्यापपर्वमयं विरामविरसं मूलेप्यभोगोचितं, विश्वक्षुल्क्षतपातकुष्टकुथिताधुग्रामयौछद्रितम् । मानुष्यं घुणभक्षितेक्षुसदृशं नाम्नैकरम्यं पुन,निस्सारं परलोकीजमचिरात् कृत्वेह सारीकुरु ॥ ८१ ॥
अर्थः-ईखके सांठे, आदि अंतमें तो सभी निरुपयोगी ही होते हैं, बीच बीचमें निस्सत्व गांठें भी सभीमें रहती हैं। गांठोंकी जगह अतिशय कठोर तथा नीरस होती है इसलिये वह किसी भी कामकी नहीं होती । रही नीचेकी जड, वह भूमिके भीतर रहनेसे सर्वथा नीरस कठोर होजाती है इसलिये वह भी निरुपयोगी ही है । ऊपरी भागतक तो रस पहुच ही नहीं पाता, वह केवल नीरस नीरसे भरा रहता है इसलिये उसे भी लोग निरुपयोगी समझकर फेंक ही देते हैं । गांठोंके बीच बीचमें कुछ थोडासा भाग ऐसा होता है कि जो खाया जासकता है । प्रथम तो बुद्धिमान मनुष्यको यह चाहिये कि वह उसे भोग्य होनेपर भी संपूर्ण न भोगकर कुछ बीजकेलिये भी शेष रकरवे, नहीं तो फिर आगे वैसा भोगना कहां मिल सकेगा? परंतु वह सांठा जितना कि भोगने योग्य है उतना भी यदि सडगया हो, कांना पडगया हो तो फिर वह जरासा भी भोगने योग्य नहीं रहता। ऐसी हालतमें यदि कोई मूर्ख मनुष्य उसे खानेकेलिये चीड फाड डाले तो उस मनुष्यको उस सांठेमेंसे कुछ खाने के लायक तो मिल ही नहीं सकता, उलटा यों ही फेंकदेना पडेगा । यदि खाया भी तो जरासा भी मीठा स्वाद न आकर उलटा वह चित्तको ग्लानि उत्पन्न करेगा । इसलिये उसको खानका उद्योग करनेसे खानेवालेका तो कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होसकता