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आत्मानुशासन.
अर्थः--आत्मन् , तुझै तृष्णा तो इतनी प्रबल है कि तीनो जगके भोगों से भी निवृत्त नहीं होसकती । तो भी मुखादि इंद्रियोंद्वारा विषय ग्रहण करते करते भी जो बहुतसी शेष रही हुई वस्तुएं दीख पडती हैं वे मुखादिके द्वारा सारा भोगलेनेकी असमर्थताके कारण समझना चाहिये, न कि मनका संतोष होजानेके कारण । जैसे राहु, चंद्र और सूर्यको निगलना तो पूरा ही चाहता है परंतु शरीररहित होनेके कारण पूरा निगल नहीं सकता। इसीलिये चंद्रसूर्य दोनो अभीतक बचे हुए हैं।
कितने ही मनुष्योंका सदा यह विचार रहता है कि हम अपने तारुण्यतक तो तृप्तिभर भोग भोगें। बुढापा जब आवेगा तब सर्व विषयोंसे विरक्त होकर विषयोंको छोडकर आत्मकल्याणकी फिक्रमें लगेंगे । ऐसा करनेसे ये मिले हुए भोग भी यों ही नहीं जायंगे और हम परभवका प्रबंध भी करलेंगे। ऐसोको समझाते हैं:
साम्राज्यं कथमप्यवाप्य सुचिरात् संसारसारं पुनस्तत्त्यक्त्वैव यदि क्षितीश्वरवराः प्राप्ताः श्रियं शाश्वतीम् । त्वं प्रागेव परिग्रहान् परिहर त्याज्यान गृहीत्वापि ते, मा भूभौतिकमोदकव्यतिकरं संपाद्य हास्यास्पदम् ॥४०॥
अर्थः-रे जीव, तू यह विचार, कि यद्यपि चक्रवर्ती आदि बडे बडे नृपतियोंने कदाचित् विशाल राज्यभोगको पाकर भी उसको संसारका सारभूत समझकर बहुत कालतक भोगा, शीघ्र ही छोडा नहीं । तो भी उनको शाश्वत मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति तो तभी हुई ना, जब कि उस राज्यभारको छोडकर उन्होंने घोर तपश्चरण किया। इसलिये जब कि ये विषय ग्रहण करनेके वाद भी छोडने योग्य ही हैं तो तू उन्हें पहले ही क्यों न छोडकर विरक्त हो, जिससे कि ग्रहण करके छोडनेपर जो तेरी हसी होने बाली है वह न हो । जैसे किसी एक आदमीने जादूगरसेि लड्डू तयार किये या तयार कर किसीको दिये हों, और वे जब