________________
आत्मानुशासन. उसी प्रकार कामके बाणोंके तुल्य स्त्रियोंकी कामोद्दीपक मंद मंद हसीसे
तथा तीक्ष्ण कटाक्षोंसे विद्ध होते हुए जो तुझे दुःख प्राप्त हुए, एवं दरिद्रताके कारण जो दुःख तुझै हुए, उन सबोंका तो तू स्मरण कर। वे तो अभी वर्तमान भवके हैं। भावार्थ, तू अनादि कालसे विवेकशून्य होरहा है। इसीलिये तेने जगकी क्षणिक मायामें फसकर अनेक वार नरकादिके तीव्र दुःख भोगे हैं। परंतु वे सभी दुःख परभव संबंधी होनेसे तेने विसारदिये हैं । खैर, अब वर्तमान ही अवस्थामें निर्धनताके कारण जो अनेक तरह के कष्ट तथा तिरस्कारादि दुःख सहे हैं, एवं कामके वशीभूत होकर जो स्त्रियोंके तीव्र ताप उत्पन्न करने बाले कटाक्ष देखकर जो तीव्र वेदना निरंतर सही है, उन्हींको तू विचार । इनके विचारनेसे मी तुझै जगकी निस्सारता समझ पड़ेगी।
शरीरादिदोष दिखाते हैं:उत्पन्नोस्यातदोषधातुमलवदेहोसि कोपादिमान् , साधिव्याधिरासि महीणचरितोस्यऽस्यात्मनो वञ्चकः। मृत्युव्यात्तमुखान्तरोसि जरसा ग्रस्तोसि जन्मिन् वृथा, किं मत्तोस्यसि किं हितारिरहितो किं वासि बद्धस्पृहः ॥५४॥
अर्थः- अरे जीव, तेने अनादि कालसे लेकर आज तक सदा ही जन्म धारण करनेके कष्ट सहे हैं। अत्यंत अपवित्र तथा दुर्गंध, दुःखदा. यक रुधिरादि धातुओंसे और मूत्र विष्टा आदि मलोंसे पूरित ऐसा तेरा देह है। क्रोध, मान, मायाचार, लोभ आदि दुर्गुणोंसे तू पूरित होरहा है । मानसिक सैकडों चिंताओंसे तथा वात्तपित्तादिजन्य शरीरसंबंधी रोगोंसे तू सदा पीडित बना रहता है। तेरी प्रवृत्ति सर्व निकृष्ट होरही है। अपने कर्तव्यसे पराङ्मुख होकर आत्मस्वरूपको भूलकर तेने वंचना कर रक्खी है । कालने जो मुख फाड रक्रवा है उसके बीचमें तू पडा हुआ है । बुढापेसे तू बचा नहीं है, जिसमें कि इंद्रियां शिथल हो जाती हैं, शक्ती अत्यंत क्षीण हो जाती है, विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है,