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हिंदी-भाव सहित ( जीवनकी असारता )। रही है तो वह उसीमें बैठा रहकर क्यों न दूसरी जगह पहुचेगा? इसी प्रकार जिसके आधाररूप आयु-काय निरंतर क्षीण हो रहे हैं वह चाहें थोडा भी इधर उधर होना न चाहे पर उसके आधारका जब सर्वथा क्षय हो जायगा तब वह कहां रह सकता है ? उसका मरण भी अवश्य होगा-इस गतिसे दूसरी गतिको प्राप्त अवश्य होगा। अब यह दिखाते हैं कि जीते या मरते सुख कभी नहीं है:
उच्छासखेदजन्यत्वादुःखमेवात्र जीवितम् । तद्विगमे भवेन्मृत्युर्तृणां भण कुतः सुखम् ॥७३॥
अर्थः-अरे भाई, जबतक उच्छ्रास है, जीना भी तभीतक है। परंतु श्वास लेनेमें निरंतर कष्ट होता है तो फिर जीना भी दुःखदायक ही हुआ, जीनेमें सुख कैसा ? जब कि खेदकारी उच्छास खतम हो जाय तो जीना नहीं हो सकता है, फिर तो मरण ही हागा। उस मरणमें भी सुख नहीं मिल सकता है; क्योंकि, जहां सुखभोक्ता जीव ही नहीं है वहां सुख कैसा और किसको ? अथवा मरनेको तो तू स्वयं ही दुःखमय मानता है । जब कि मरण होता है तब वेदना भी जीवको प्राय इतनी होती है कि जिसका वर्णन करना भी कठिन है। जब कि जीवोंको जीते हुए भी सुख नहीं है और मरनेपर भी नहीं है तो कहो, संसारमें सुख कैसा और कहांपर है ? सुख है तो एकमात्र शरीरसे स्नेह छोडनेपर है, जिससे कि आगेके लिये शरीरका संबंध ही टूट जाता है। शरीर रहते हुए तो कहीं. कभी किसीको भी सुख नहीं है।
जीनेमें सुख होना असंभव और जीने की क्षणिकताः-- जन्मतालद्रुमाजन्तुफलानि पच्युतान्यधः । अप्राप्य मृत्युभूभागमन्तरे स्युः कियचिरम् ॥ ७४ ॥
अर्थः--जन्मरूप तालवृक्षके ऊपरसे टूटकर जन्तुरूप फल नीचेकी तरफ जो गिर रहे हैं वे मरणरूप- भूमितक न पहुचकर बीचमें कितनी देरतक ठहरेंगे?